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कहा
"नहीं भगवन्!" पर आचार्यश्री ने कहा "अतीत में जब तुम राजकुमारी थी
तो तुमने एक राजकुमार को विकारमय दृष्टि से देखा था ।" रुक्मी चौंक पड़ी 'ओ हो ! क्या वही राजकुमार ये आचार्य हैं ?' उसके पाँवों तले धरती खिसकने लगी । माया ने अपना आँचल फैलाया, क्योंकि रुक्मी साध्वी के अखण्ड ब्रह्मचर्य की ख्याति दूर- सुदूर व्याप्त थी । रुक्मी ने सहज होने का प्रयास करते हुए कहा - "भगवन् ! वह कटाक्ष मात्र आपकी परीक्षा हेतु था ।" आचार्य मौन हो गए, पर शास्त्र कहते हैं रुक्मी साध्वी का पाप माफ नहीं हुआ । माया ने उस पाप को इतना गहरा कर दिया. कि जन्म-जन्मांतर में उसे उखाड़ना कठिन हो गया ।
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44 'उत्तराध्ययनसूत्र 32 / 30
45 दशवैकालिक 8/37
46 'उत्तराध्ययनसूत्र 19/45
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नट, धूर्त और वैद्य के साथ कपट करने से ईंट का जवाब पत्थर से मिलेगा । डॉक्टर या वैद्य को यदि रोग का खुलासा ठीक तरह से नहीं करेंगे, तो वे चिकित्सा भी ठीक प्रकार से नहीं कर पाएंगे। इसी प्रकार, बहुश्रुत विद्वान्, ज्ञानी के सामने भी अपनी शंकाएं छिपा लेंगे, तो अज्ञानता किस प्रकार से दूर होगी ? इस प्रकार की माया स्वयं को नुकसान पहुंचाती है ।
8. माया - मृषावाद एक पाप है
अठारह पापस्थानकों में माया एवं मृषावाद - दोनों स्वतंत्र भेद रूप में वर्णित हैं। दोनों का संयुक्त रूप माया - मृषावाद भी एक पापस्थानक है । माया के बिना असत्य भाषण संभव नहीं होता है । असत्य की जननी ही माया है । यह पाप - स्थान मायावी ही सेवन कर सकता है । असत्य को सत्य रूप दे देना, पाप को छिपा लेना, गलत होते हुए भी अच्छे होने का ढोंग करना माया मृषावादी का कार्य है। उत्तराध्ययनसूत्र में कहा है माया सहस्त्रों सत्य को नष्ट कर डालती है। माया - मृषावाद से लोभ बढ़ता है, 45 अतः इससे बचना चाहिए | 46
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