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आचार्य के सामने यदि अपने अपराध हम सरलतापूर्वक स्वीकार कर लेते हैं, तो उनके द्वारा प्रदत्त प्रायश्चित्त से आत्मशुद्धि हो सकती है, परन्तु यदि अपराध छिपा लेते हैं तो भीतर ही भीतर अपराध करने का शल्य बना रहेगा और आत्मशुद्धि कभी नहीं होगी। शास्त्रों में लक्ष्मणा साध्वी एवं रुक्मणी साध्वी के उदाहरण प्राप्त होते हैं। उनकी सामान्य सी माया भी उनके भवभ्रमण का हेतु बन गई।
लक्ष्मणा साध्वी42 – लक्ष्मणा साध्वी ने एक बार चक्रवाक एवं चक्रवाकी की प्रणय-क्रिया को कुछ क्षणों तक ध्यान से देखा। उनके हृदय में वासना के सुप्त संस्कार जाग्रत हो गए। उनका मन विकार-भावों में बहता रहा। कुछ देर में विचारों से उबरने के बाद उनके मन को एक झटका लगा - अहो ! मैं कहाँ खो गई थी। संयमी जीवन में ऐसा विचार क्या शोभास्पद है ? मुझसे कितना जघन्य अपराध हुआ है। क्यों न मैं प्रायश्चित्त की अग्नि में आत्मदेव को पवित्र कर लूँ ?
गुरु-चरणों में विनम्र अंजलिबद्ध प्रणाम के उपरान्त लक्ष्मणा ने मन्द स्वर में प्रश्न किया – “हे पूज्या! किसी पक्षी-युगल की वासनात्मक-क्रिया देखकर यदि विकार-परिणाम आएं, तो क्या प्रायश्चित्त करना चाहिए ?” गुरुजी ने गंभीरता से प्रतिप्रश्न किया – “यह प्रायश्चित किसे लेना है ?” लक्ष्मणा के माथे पर पसीने की बूंदें झिलमिला उठी। पाप को स्वीकार करने का साहस वह जुटा नहीं पाई। सहसा मुख से बोल फूट पड़े -"किसी ने यह प्रश्न करने के लिए मुझे कहा था।” बस, सब समाप्त हो गया। माया ने प्रायश्चित्त करने की भावना के उपरान्त भी प्रायश्चित्त नहीं करने दिया। उसकी दीर्घकालिक तपस्या भी पाप के दाग को धो नहीं पाई और वह माया संसार–परिभ्रमण का कारण बन गई।
___ रुक्मी43 – कई श्रमण-श्रमणियाँ आचार्यश्री से अपने पापों की आलोचनारूप प्रायश्चित्त ग्रहण कर रहे थे। अचानक आचार्यश्री ने रुक्मी साध्वी पर दृष्टिपात किया और पूछा - "हे आर्या! आपको प्रायश्चित लेना है ?" रूक्मी ने सहज-सौम्यता से
42 कषाय : एक तुलनात्मक अध्ययन, डॉ. साध्वी हेमप्रभाश्री, पृ. 32 43 कथा-संग्रह
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