SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 385
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कितना ही टेड़ा-मेढ़ा हो, किन्तु अपने आत्मगृह में आने के लिए एकदम सीधा-सरल होना ही पड़ेगा । माया के विभिन्न रूप 356 वस्तुतः, माया की प्रवृत्ति सभी प्राणियों में पाई जाती है । प्रत्येक प्राणी अपने स्वार्थ और लाभ के लिए माया का सहारा लेता है । माया का अर्थ ही है - दूसरों को ठगने का मानसिक परिणाम । दूसरों को ठगने के लिए जो माया करता है, वह परमार्थ से अपने-आपको ही ठगता है । राजा हो या रंक, ब्राह्मण हो या वणिक्, सुनार हो या सन्यासी, दम्पत्ति हो या वेश्या, शिकारी हो या चाण्डाल – सभी अपनी स्वार्थसिद्धि के लिए माया के विभिन्न रूपों का प्रयोग करते हैं, जैसे • राजा कूटनीति, षड्यंत्र, जासूसी और गुप्त प्रयोगों द्वारा कपटपूर्वक विश्वस्त व्यक्ति का घात करके धन के लोभ से दूसरों को ठगते हैं । • ब्राह्मण मस्तक पर तिलक लगाकर, हाथ आदि की विविध मुद्राओं का प्रदर्शन करके, मंत्रजाप कर तथा दूसरों की कमजोरी का लाभ उठाकर हृदयशून्य होकर बाह्य - दिखावा करके लोगों को ठग लेते हैं । • वणिकजन गलत नापतौल करके कपट-क्रिया करते हैं तथा सामान को कम तौलकर भोले-भाले लोगों को ठगते हैं । • सुनार सोने-चांदी में अन्य धातुओं का मिश्रण कर लोगों को ठगते हैं । कई लोग सिर पर जटा धारण कर, मस्तक मुंडाकर या लम्बी-लम्बी शिखा - चोटी रखवाकर भस्म रमाकर, भगवा वस्त्र पहनकर या नग्न रहकर, ऊपर से पाखंड रचकर भद्र एवं श्रद्धालु यजमानों को ठग लेते हैं । • स्नेहरहित वेश्याएं अपने हाव-भाव, विलास, मस्तानी चाल दिखाकर अथवा कटाक्ष करके या अन्य कई तरह के नृत्य, गीत आदि से कामी पुरुषों को क्षणभर में आकर्षित करके ठग लेती हैं । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003971
Book TitleJain Darshan ki Sangna ki Avdharna ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPramuditashreeji
Publication Year2011
Total Pages609
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy