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________________ 355 प्रयोग किया गया हो, जहाँ स्थित विशुद्ध जीव सर्वज्ञ, सर्वदर्शी तथा अनन्त शाश्वत सुख का अनुभव करनेवाला हो, उसके विषय में ऐसी भ्रामक बातें करना माया है। 4. परवञ्चनाभिप्रायेण शरीराकारनेपथ्यमनोवाक्काय कौटिल्यकरणे - __ "दूसरों को ठगने की इच्छा से शरीर के आकार, वेशभूषा, मन, वचन, काया को कुटिल बनाना माया है।" दूसरों को ठगने के लिए लोग मुंह पर नकाब लगा लेते हैं। विभिन्न देशों-प्रान्तों की वेषभूषा धारण कर अपने को किसी प्रदेश-विशेष का निवासी बताना, मन चंचल भले हो, परन्तु सरल और सहज बताना, अपनी मातृभाषा छोड़कर किसी अन्य प्रदेश की भाषा बोलना, जिससे सुनने वाले लोग उसे अपने प्रदेश का निवासी समझने लगें, काया को कुटिल बनाना, अर्थात् लंगड़ाकर चलना, दोनों आँखें इस तरह रखना जिससे लोग अंधा समझें और दयावश भीख देने लगें, ये सारे कार्य माया के अन्तर्गत आते हैं। संक्षेप में कहें, तो दूसरों को ठगने के लिए या धोखा देने के लिए जो कार्य किए जाते हैं -ऐसे प्रत्येक कार्य माया हैं। दिखावा, ढोंग, पाखण्ड, आडम्बर, धूर्तता, छल, धोखा, कपट, माया आदि शब्द एक ही अर्थ को सूचित करते हैं। दर्शन से दूर रहकर लोग केवल प्रदर्शन करना चाहते हैं, उनकी यही वृत्ति माया है। दूसरों को ठगकर, धोखा देकर हम भले ही थोड़ी देर के लिए आनंदित हो जाएं और अपने आपको समझदार मानने लगें, किन्तु हम दूसरों को भले ही छलें, लेकिन छाले तो अपनी आत्मा में ही पड़ेगे। बालक का व्यवहार एकदम निच्छल होता है, किन्तु वही बालक जब पालक बनता है, तो उसका मन चालाक बन जाता है। कहते हैं, जब मन में राग-द्वेष, विषय-कषाय आदि की गांठ पड़ना प्रारंभ हो जाए तो समझ लेना चाहिए कि बचपन खत्म हो गया। सर्प बाहर कितना ही लहराकर टेढ़ा-मेढ़ा चले, किन्तु जब भी वह बिल में प्रवेश करता है, तो उसे सरल और सीधा होना पड़ता है, उसी प्रकार हमारा जीवन संसार में 19 अभिधानराजेन्द्रकोष, भाग-6, पृ. 251 . Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003971
Book TitleJain Darshan ki Sangna ki Avdharna ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPramuditashreeji
Publication Year2011
Total Pages609
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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