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________________ 328 रहने वाले पक्षी अन्यत्र चले जाते हैं। भारी चीज कभी ऊपर नहीं उठती है, नीचे ही गिरती है। ऊँचा उठने के लिए अहंकार के भार को कम करके मन के भावों को हल्का बनाना आवश्यक है। मान के विभिन्न रूप - मान जीवन को गहरे पतन-गर्त में धकेलने वाली एक मनोवृत्ति है। इस जगत् में देखा जाए तो एक से बढ़कर एक अभिमानी मिलते हैं। किसी को अपनी जाति कुल का अभिमान है, तो किसी को अपने रूप पर गर्व है। कोई अपने धन-वैभव पर इतराता है, तो कोई अपनी तपस्या का घमण्ड करता है। किसी को अपनी उपलब्धियों पर मान है, किसी को अपने ज्ञान का गर्व है, तो किसी को अपनी बुद्धि का मद है। मान अनेक रूपों में प्रगट होता है। भगवतीसूत्र में मान के बारह रूपों की चर्चा की गई है, वहीं समवायांगसूत्र में ग्यारह नामों का उल्लेख है। पुर्नाम को छोड़कर सभी समान हैं - 1. मान, 2. मद, 3. दर्प, 4. स्तम्भ, 5.गर्व, 6. आत्मोत्कर्ष, 7.परपरिवाद, 8. उत्कर्ष, 9. अपकर्ष, 10. उन्नतनाम, 11. उन्नत, 12. पुर्नाम। ___श्री अभयदेवसूरि द्वारा भगवतीसूत्र के वृत्ति-अनुवाद में इन रूपों का अर्थ निरूपण निम्न प्रकारेण किया गया है - 1. मान - जिस कर्म के उदय से मान-भाव उत्पन्न होता है, वह कर्म ही मान है।" अपने किसी गुण पर अहंवृत्ति करना, अथवा आत्मपूजा की आकांक्षा से उत्पन्न अहंकार मान है।18 2. मद - शक्ति का अहंकार मद कहलाता है। 15 माणे, मदे, दप्पे, शंभे, गवे, उत्तुक्कोसे, परपरिवाए, उक्कोसे, अवक्कोसे, उण्णते, उण्णामे, दुण्णामे –भगवतीसूत्र, श.12, उ.5, सू.104 16 माणे, मदे, दप्पे, थंभे ................. | -समवायांगसूत्र, 52, सूत्र 1 ।" भगवतीसूत्र, श.12, उ.5, सूत्र 3 की वृत्ति 18 सर्वदात्मपूजाऽऽकांक्षित्वात् मानः। -तत्त्वार्थसूत्राधिगम भाष्यवृत्ति 8/10 की टीका Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003971
Book TitleJain Darshan ki Sangna ki Avdharna ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPramuditashreeji
Publication Year2011
Total Pages609
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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