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________________ 327 अनर्थकारी व दूसरों के लिए भी अकल्याणकारी होता है। जब मान होता है तब विनम्रता नष्ट हो जाती है। जीवन में सफलता के लिए विनय अति आवश्यक है। धन, सम्पत्ति, सुख, प्रसन्नता, ज्ञानसाधना आदि सभी क्षेत्रों में विनय के बिना प्रगति नहीं की जा सकती। जो झुकता है, वही आगे बढ़ता है। झुकना तो जीवन की पहचान है, जैसा कि उर्दू के एक विद्वान् ने कहा है - झुकता वही है, जिसमें कुछ ज्ञान है। अकड़पन तो खास, मुर्दे की पहचान है। अभिमान करना अज्ञानी का लक्षण है। जो अपनी प्रज्ञा के अहंकार में दूसरों की अवज्ञा करता है, वह मूर्खबुद्धि (बालप्रज्ञ) है।" मान का प्रभाव इतना प्रबल है कि वह धर्म को भी अधर्म बना देता है। जैसे जहर पेय को अपेय बना देता है, वैसे ही अहंकार भी पुण्य को पाप, धर्म को अंधर्म बना देता है। जप, तप, दान, दया आदि में जब यह मानरूपी पाप छा जाता है, तो इन क्रियाओं को निर्जरा-रूप फल प्राप्त नहीं हो सकता है। उमास्वातिजी महाराज ने ठीक कहा है -"जाति, कुल आदि किसी भी प्रकार के मद से उन्मत्त जीव पिशाच की तरह दुःखी होते हैं और परलोक में जाति आदि की हीनता निश्चित प्राप्त करते हैं। 4 अहंकार पतन की निशानी है, कभी भी अभिमान लाभकर नहीं होता, दीपक जब बुझने की तैयारी में होता है, तब क्षणभर के लिए लौ ऊपर उठती है और बहुत तेज प्रकाश बिखेरती है, परंतु यह तो उसके बुझने की निशानी है। इसी प्रकार, तीव्र अभिमान भी नीचे गिरने की निशानी है। जब व्यक्ति अभिमान से भर जाता है, तो उसे हित-अहित का भान नहीं रहता। स्वयं का महत्त्व सर्वोपरि हो जाता है। व्यक्ति जो सोचता है, उसी को सही मानता है। मान के कारण हृदय से सब सद्गुण उसी प्रकार विदा होने लगते हैं, जिस प्रकार तालाब का पानी सूखने पर उसके तट पर 12 बालजणो पगब्भई। – सूत्रकृतांगसूत्र 1/11/2 । अन्नं जणं खिंसइ बालपन्ने। - वही, 1/13/14 "जात्यादिमदोन्मतः पिशाचवद भवति दुखितश्चेह। जात्यादि हीनता परभवे च निः संशय लभते।। - प्रशमरति, गाथा 198 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003971
Book TitleJain Darshan ki Sangna ki Avdharna ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPramuditashreeji
Publication Year2011
Total Pages609
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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