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________________ 326 धर्मामृत (अनगार) में उपमा के माध्यम से मान के विषय में कहा गया है'जैसे सूर्य के अस्त होने पर अन्धकार व्याप्त हो जाता है और निशाचर (राक्षस) भ्रमण करने लगते हैं, उसी प्रकार विवेकरूपी सूर्य जब अहंकाररूपी अस्ताचल की ओट में लुप्त हो जाता है, तो मोहान्धकार व्याप्त हो जाता है। रागद्वेषरूपी निशाचर घूमने लगते हैं, चौर्य, व्यभिचार आदि पापकर्म पनपने लगते हैं। प्राणी दृष्टिहीन होकर स्वच्छन्दतापूर्वक उन्मार्ग में प्रवर्तित होने लगते हैं।" मोक्षमार्ग-प्रकाशक' में मान का स्वरूप बतलाया गया है कि अभिमानी व्यक्ति स्वयं को उच्च एवं अन्य को निम्न प्रदर्शित करने की इच्छा रखता है। परिणामस्वरूप, वह अन्य की निन्दा करता है, स्वप्रशंसा हेतु विवाहादि कार्यों में क्षमता से अधिक व्यय करता है। यदि उसकी इच्छा पूर्ण न हो, तो अंत्यन्त सन्तप्त होता है। सन्ताप की तीव्रता में कभी-कभी विष-भक्षण, अग्नि-स्नान आदि से आत्मघात भी कर लेता है। मान-मोहनीयकर्म के उदय से अपने को विशेष समझना और अहंकार, दर्प, गर्व आदि के रूप में जीव की परिणति को मान-संज्ञा कहते हैं। अहंकार की मनोवृत्ति मान-संज्ञा कहलाती है। प्रवचनसारोद्धार में कहा गया है – मानकषाय के उदयजन्य गर्व की कारणभूत अवस्था या भाव मानसंज्ञा है। जीवात्मा में जीव अथवा अजीव (धन, सम्पत्ति) आदि के कारण अहंकारपूर्ण मनःस्थिति को मान-संज्ञा कहते हैं। अर्थात, मानसंज्ञा का जब उदय होता है, तब व्यक्ति यथार्थता को भूल जाता है तथा मदोन्मत्त होकर अनेक पापकार्य भी कर डालता है। यह स्वयं के लिए धर्मामृत अनगार, अ.6/श्लो. 10 7 मोक्षमार्ग प्रकाशक, पं. टोडरमल, पृ. 53 प्रज्ञापनासूत्र - 8/725 " उत्तराध्ययनसूत्र : दार्शनिक अनुशीलन एवं वर्तमान परिप्रेक्ष्य में उसका महत्व - सा.डॉ. विनीतप्रज्ञा, पृ.491 1 प्रवचनसारोद्धार, सा. हेमप्रभा, द्वारा 146 पृ. 80 ॥ दण्डक प्रकरण, मुनि मनितप्रभसागर, पृ. 310 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003971
Book TitleJain Darshan ki Sangna ki Avdharna ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPramuditashreeji
Publication Year2011
Total Pages609
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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