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व्यक्ति धर्म की मर्यादा का नाश कर देता है और सदा पशु के समान अपना अविवेक पूर्वक आचरण करता है। 68
स्थानांगसूत्र में कहा है – पर्वत की. दरार के समान जीवन में कभी नहीं मिटने वाला उग्र क्रोध आत्मा को नरक-गति की ओर ले जाता है। जो मनुष्य क्रोधी, अविवेकी, अभिमानी, दुर्वादी, कपटी और धूर्त है, वह संसार के प्रवाह में वैसे ही बह जाता है, जैसे जल के प्रवाह में काष्ठ । क्रोध से मनुष्य का हृदय रौद्र बन जाता है। वह मनुष्य होने पर भी नारक जैसा, शैतान जैसा आचरण करने लगता है। क्योंकि क्रोधरूपी अग्नि जीवन-रस को जला देती है। क्रोध में मूढ़ (पागल) होकर वह मनुष्य अपने बड़ों (गुरु) को भी अपशब्द (गाली) कहना प्रारम्भ कर देता है। क्रोध वह नशा है, जो शराब पिए बिना भी मनुष्य को उन्मत्त बनाए रखता है और जीवन की सुन्दरता और मधुरता दोनों को नष्ट कर देता है।
क्रोध के दुष्परिणाम निम्न हैं – 1. क्रोध विवेकहीन बनाता है -
क्रोधावस्था में विवेक पलायन कर जाता है। भले-बुरे की पहचान और बड़े-छोटे का भेद विस्मृत हो जाता है। क्रोध के मूल में प्रतिकार का भाव होता है। क्रोध में विवेक खोने के कारण व्यक्ति की बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है। क्रोध के वशीभूत व्यक्ति ऐसा कृत्य भी कर डालता है, जिसका परिणाम बड़ा गम्भीर होता है। एक
68 कोऽनर्थनिःशेषश्च कोपयुक्ताधमस्तां न करोति।
हन्ति धर्म मर्यादां पशुखि समाचरन्ति नित्यम् ।। – उपासकाध्ययन 1/275 69 पव्वरयराइसमाणं कोहं अणुपविढे जीवे।
कालं करेइ रइएसु उववज्जति।। - स्थानांगसूत्र 4/2 70 जे य चंडे मिए थद्धे, दुव्वाई नियडी सढे।
वुज्झइ से अविणीयप्पा, कळं सोयगयं जहा।। - दशवैकालिकसूत्र 9/2/3 " रोसेण रूद्दहिदओ, णारगसीलो णरो होदि - भगवतीआराधना 1366 2 यदग्निरापो अदहत्। - अथर्ववेद – 1/25/1 "क्रोद्धो हि संमूढः सन् गुरूं आक्रोशति - गीता, शांकरभाष्य, 2/63
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