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________________ 300 3. प्रत्याख्यानी क्रोध - प्रत्याख्यानी क्रोध धूल में पड़ने वाली रेखा के समान कहा गया है। रेती में पड़ने वाली रेखा हवा के झोंको के साथ मिट जाती है, उसी प्रकार प्रत्याख्यानी क्रोध भी जल्दी मिट जाता है। धीरज से समझाने के साथ विवेक लौट आता है और क्रोध का शमन हो जाता है। प्रत्याख्यानी-क्रोध चार मास से अधिक स्थायी नहीं होता। आत्म-ज्ञान के पश्चात् साधक सांसारिक कार्यों को संक्षिप्त करके श्रावक-जीवन के बारह व्रत स्वीकार करता है। साधना मार्ग पर उसके चरण बढ़ते जाते हैं। उसके व्रतपालन में कोई बाधक बनता है, तो उसे क्रोध आने लगता है। महाशतक भगवान् महावीर के श्रावक थे। पौषधशाला में ध्यानावस्थित होने पर पत्नी रेवती द्वारा उन्हें विचलित करने का बार-बार प्रयास किया जाने लगा। अन्ततः, क्रुद्ध होकर वे बोल उठे – रेवती! तुम्हारा रूप का अभिमान टिकने वाला नहीं। सात दिनों बाद तुम देह त्यागकर नरक में उत्पन्न होने वाली हो। यह क्रोधोदय श्रावक, व्रतधारी तक सभी में होता है। 4. संज्वलन-क्रोध : शीघ्र ही मिट जाने वाली या पानी में पड़ने वाली रेखा के समान संज्वलन-क्रोध समता एवं विवेक के आगमन के साथ शमन को प्राप्त करता है। शुद्ध स्वरूप-प्राप्ति की साधना में रत मुनि को अपने दोष पर रोष होता है। श्रीमद् राजचन्द्र ने 'अपूर्व अवसर' में कहा है – अरणिक मुनि ने अपनी भूल के प्रायश्चित्त में अनशन धारण किया। क्रोध के प्रति ही क्रोध हो - वह संज्वलन-क्रोध है। याज्ञवल्क्योपनिषद् में भी इसी बात की पुष्टि की है – यदि तू अपकार करने वाले पर क्रोध करता है, तो क्रोध पर ही क्रोध क्यों नहीं करता? जो सबसे अधिक अपकार करने वाला है। 36 अपकारिणि कोपश्चेत्कोपे कोपः कथं न ते ? - याज्ञवल्क्योपनिषद/29 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003971
Book TitleJain Darshan ki Sangna ki Avdharna ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPramuditashreeji
Publication Year2011
Total Pages609
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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