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________________ श्वेताम्बर-ग्रन्थों'' में जीवन पर्यंत एवं दिगम्बर ग्रन्थों में संख्यात्भव, असंख्यातभव, अनन्तभव - पर्यन्त बताया गया है । भगवान् महावीर को कष्ट देने से संगमदेव ने अनन्तानुबन्धी- क्रोध ( कषाय) का बंध किया । 2. अप्रत्याख्यानी - क्रोध (तीव्रतर क्रोध) अप्रत्याख्यानी- क्रोध का जब उदय होता है तो क्रोधवश वह व्रत ग्रहण में बाधक बनता है। आंशिक रूप में त्याग - विरतिपालन संभव नहीं हो पाता है । 3 सूखते हुए जलाशय की भूमि में पड़ी दरार जैसे आगामी वर्षा होते ही मिट जाती है, वैसे ही अप्रत्याख्यानी-क्रोध एक वर्ष से अधिक स्थाई नहीं रहता है, किसी के समझाने से शांत हो जाता है। सम्यग्दृष्टि को देव - गुरु-धर्म का राग होता है । अतः देवगुरुधर्म का अपमान करने वाले के प्रति आवेश आता है। वस्तुपाल महामन्त्री ने राजा के मामा द्वारा एक बाल मुनि को थप्पड़ मारने पर उसका हाथ कटवा दिया था । सरस्वती साध्वी का गर्दभिल्ल राजा द्वारा अपहरण होने पर कालिकाचार्य द्वारा वीर सैनिक का वेश धारण किया गया था । गर्दभिल्ल राजा की हत्या कर सरस्वती को कैद - मुक्त कर कालिकाचार्य ने प्रायश्चित्त लिया था । अप्रत्याख्यानी - क्रोधादि कषाय का उदयरूप अधिकतम काल श्वेताम्बर - ग्रन्थों के अनुसार 34 एक वर्ष एवं दिगम्बरग्रन्थों के अनुसार छ: मास वर्णित है। इससे अधिक काल यदि वह क्रोधादि कषाय का संस्कार बना रहा, तो अनन्तानुबन्धी कहलाता है । इस काल - मर्यादा को ध्यान में रखते हुए ही जैन - परम्परा में 'सांवत्सरिक - प्रतिक्रमण की व्यवस्था है । 31 जावज्जीवाणुगामिणो - विशेषावश्यक भाष्य / गा. 2992 32 अ) जो सव्वेसिं संखेज्जासंखेज्जाणंतेहि - कषायचूर्णि / अ 8 / गा 32 / सू 23 ब) गोम्मट क. / गा 46-47 33 युदुदयाद्देशविरतिं कर्त्तुं न शक्नोति । 34 वच्छर - आचारांग / शीलांक, टीका / अ. 2 / उ. 1 / सू 190 35 अ ) छण्हं मासाणं - कषायचूर्णि / अ8 / गा 85 / सू 22 अप्रत्याख्यानावरणानां षण्मासा ब) - गोम्मट क. / गा 46 Jain Education International 299 सर्वार्थसिद्धि / अ 8 / सू 9 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003971
Book TitleJain Darshan ki Sangna ki Avdharna ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPramuditashreeji
Publication Year2011
Total Pages609
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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