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________________ 289 करने वाला व्यक्ति ही वास्तव में समत्ववृत्ति का विकास कर सकता है और अपने साधना के शिखर पर पहुंच सकता है। शोध प्रबंध के पंचम अध्याय में परिग्रह-संज्ञा की विस्तृत विवेचना में सर्वप्रथम इस बात को स्पष्ट किया गया है कि लोभ मोहनीय कर्म के उदय से सचित्ताचित्त और मिश्र द्रव्यों के संचयन करने की वृत्ति ही परिग्रह-संज्ञा है। या वस्तु के प्रति ममत्वबुद्धि, आसक्ति, मूर्छा आदि को भी परिग्रह-संज्ञा कहते हैं। साथ ही परिग्रह-संज्ञा की उत्पत्ति के प्रमुख चार कारण जो स्थानांगसूत्र में वर्णित हैं उनकी व्याख्या और विस्तृत विवेचना के साथ वर्तमान समय में उपभोक्ता संस्कृति के तीव्र विकास और मन को ललचाने एवं लुभानेवाले विज्ञापनों के माध्यम से जनता वस्तुओं के प्रति सम्मोहित हो रही है और अनावश्यक वस्तुओं का संग्रह करती चली जा रही है, और परिग्रह को बढ़ाती जा रही है। उपभोक्ता संस्कृति के कारण आर्थिक विषमता समाज में विकराल रूप से व्याप्त हो गई है। इस कारण गरीब और गरीब तथा अमीर और अमीर होता जा रहा है। साथ ही परिग्रह का स्वरूप, लक्षण और बाह्य-आभ्यंतर परिग्रह के प्रकारों का वर्णन किया गया है। इसके पश्चात् अन्तरंग और बाह्य परिग्रह के बारे में बताते हुए कहा गया है कि अन्तरंग परिग्रह 14 प्रकार के हैं और बाह्य परिग्रह अनगिनत प्रकार के हैं। तत्पश्चात् संचयवृत्ति के दुष्परिणामों की व्याख्या में यह चर्चा प्रमुख रूप से ध्यान देने योग्य है कि संचयवृत्ति के कारण जीव नरकादि दुर्गतियों में चला जाता है। क्योंकि महारम्भ, महापरिग्रह, मांसाहार और पंचेन्द्रिय जीवों की हिंसा या वध, इनमें से एक के होने पर जीव नरकायु उपार्जित करता है और महापरिग्रह के पाश में फंसकर अपना पतन कर लेता है। जैसे मम्मण वणिक ने किया था। इसलिए स्व के उत्थान के लिए जैनदर्शन में परिग्रहवृत्ति के नियंत्रण के उपाय में परिग्रह-परिमाण व्रत की विवेचना के साथ परिग्रह की पांच भावनाओं का भी वर्णन किया गया है। इसमें यह बताने का प्रयास किया गया है कि श्रावक जीवन के लिए अर्थ उपयोगी है पर वह अर्थ कहीं अनर्थ रूप न हो जाय, इसलिए परिग्रह परिमाण-व्रत के अंकुश से श्रावक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003971
Book TitleJain Darshan ki Sangna ki Avdharna ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPramuditashreeji
Publication Year2011
Total Pages609
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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