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________________ में हो, चाहे वह सुखद अवस्था में हो या दुःखद अवस्था में हो, वह किसी प्रकार के बन्ध से रहित होता है । वह सर्वत्र समत्वसुख का ही अनुभव करता है । 136 यह सब इसलिए सम्भव हो सका क्योंकि परिग्रह हम सबको प्रिय लगता है। उसके प्रति हमारा ममत्व भाव जुड़ा है। आज उसे ही हमने अपने जीवन का आधार और अपनी महानताओं का मापदण्ड मान लिया है। जिसने जितना अधिक जोड़ रखा होगा उसे उतना ही ऊँचे आसन पर हम बिठाते हैं और उसे उतना ही सम्मान दिया जाता है। जो भी संग्रह किया जाता है उसके मूल में ममत्ववृत्ति ही कार्य करती है, मत्व वृत्ति को पूर्ण करने के लिए बहुत से लोग पा के मार्ग अपनाने और अनैतिकता के कार्य को करने में भी हिचकिचाते नहीं है । अर्थात् जुआ, व्याभिचार, लूट-खसोट, डकैती, चोरी, राष्ट्रद्रोह, स्मगलिंग आदि पाप कार्योंक को करते हैं और संग्रह करते जाते हैं । मात्र मैं और मेरेपन के भाव से जो संग्रह किया जाता है, वह संग्रह अधिक भी हो जाने पर उसे पुण्य का फल नहीं कह सकते । उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि ममत्व वृत्ति का त्याग जब तक नहीं होगा, तब तक समत्ववृत्ति का विकास नहीं हो सकता। जिस प्रकार थोड़ी सी आहट और खतरे की आवाज से कछुआ अपने अंगों को समेट लेता है, उसी प्रकार समत्ववृत्ति के विकास वाला व्यक्ति भी संसार के फैलाव को स्व में निहित कर लेता है और ममत्ववृत्ति का त्याग करता है । समयसार में भी कहा है कि - "परद्रव्य (परिग्रह) और आत्मा का कोई सम्बन्ध नहीं है। फिर भी अज्ञान के कारण जो परद्रव्य में ममत्ववृत्ति रखता है तो वह मिथ्यादृष्टि है । क्योंकि निश्चय से अणुमात्र भी मेरा नहीं है । 137 I 288 निष्कर्षतः वास्तविक सुख तो ममत्ववृत्ति के त्याग में ही है। क्योंकि इन्द्रियों के इष्ट-अनिष्ट विषयों में व्याकुलता का परिहार करके निस्पृहता या निर्ममत्व को धारण 136 विजने जनसंकीर्णे सुस्थिते दुःस्थिते ऽपि वा । सर्वत्राप्रतिबद्धः स्यात्संयमी संगवर्जितः ।। ज्ञानार्णव, गाथा 854 137 ववहारभासिदेण दु परदव्वं मम भांति अविदिदत्था । जाणंति णिच्छएण दु ण य मह परमाणुमित्तमवि किंचि । । - समयसार, गाथा 324 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003971
Book TitleJain Darshan ki Sangna ki Avdharna ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPramuditashreeji
Publication Year2011
Total Pages609
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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