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कामभोगों में आसक्त मनुष्य ही नरक और अशुभ योनियों में जन्म लेता है।135 सम्पूर्ण जगत् इसी आसक्ति एवं ममत्व वृत्ति के पाश में बंधा हुआ है और इच्छा और द्वेष में सम्मोहित होकर परिभ्रमण करता रहता है। गीताकार ने ममत्व वृत्ति के विसर्जन का एक उपाय बताया है वह यह है कि – सभी कुछ भगवान के चरणों में समर्पित कर कर्तृत्व भाव से मुक्त होकर जीवन जीना चाहिए। उसी प्रकार ममत्व के विसर्जन के लिए हृदय में संतोषवृत्ति का उदय होना चाहिए। जबकि व्यावहारिक रूप से ममत्व वृत्ति के त्याग के लिए जैनआचारदर्शन में परिग्रह की सीमा का निर्धारण करना आवश्यक माना गया है। जब ऐसी भावना और वृत्ति उत्पन्न होगी तभी समत्त्व वृत्ति का विकास संभव हो पाएगा।
ममत्व वृत्ति का त्याग क्यों ?
वस्तुतः यह सत्य है कि दुःखों का मूल कारण ममत्ववृत्ति या परिग्रह ही है। जब कोई व्यक्ति अपनी बीमारी को बीमारी के रूप में समझता है, तब उसे दूर करने के उपाय भी करता है और ऐसे व्यक्ति के निरोग हो जाने की सम्भावनाएं रहती हैं। परन्तु यदि कोई रोगी अपनी बीमारी को ही अपनी स्वस्थ्यता समझने लगे तो फिर वह स्वास्थ्य प्राप्ति के उपाय क्यों करेगा ? तब उसे धन्वंतरि भी निरोग नहीं कर सकेंगे। परिग्रह के सम्बन्ध में हमारी धारणा भी ऐसी ही बन गई है। बड़प्पन या मान कषाय की रक्षा के लिए हमने परिग्रह की परिभाषा ही बदल ली है। उसे पापों की सूची से निकालकर हम उसे पुण्य का फल मानने लगे हैं।
"जो व्यक्ति ममत्व को छोड़कर निःस्पृह हो जाता है। वह चाहे जन से शून्य वन आदि में एकान्त स्थान में अवस्थित हो और चाहे जनसमुदाय से व्याप्त नगरादि
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