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परिग्रह को नियंत्रित रखते हुए साधना में आगे बढ़ सकता है। इसके साथ-साथ परिग्रहवृत्ति की विजय के संबंध में गांधी जी के 'ट्रस्टीशिप के सिद्धान्त' की भी व्याख्या की गई है । अन्त में धनार्जन की वृत्ति एवं धनसंचय की वृत्ति में अंतर, ममत्ववृत्ति के त्याग तथा समत्व वृत्ति के विकास की विस्तृत व्याख्या की गई है !
परिग्रह - संज्ञा के विस्तृत विवेचन में एक चिन्तन यह भी किया गया है कि परिग्रह को यदि सीमित करना है तो सर्वप्रथम हमारी आवश्यकताओं, इच्छाओं और आकाक्षाओं को सीमित करना होगा। इसके लिए संतोषवृत्ति का विकास करना होगा । क्योंकि परिग्रह तभी बढ़ता है जब कोई वस्तु हमें अच्छी लगती है और हम उस पर अपना ममत्व आरोपित कर उसे अपने अधिकार में ले लेते हैं, चाहे वह आवश्यक हो या अनावश्यक । अर्थात् अच्छा लगना ही परिग्रह को बढ़ाता है । अतः इस परिग्रह से बचने के लिए हम यह प्रयास अवश्य कर सकते हैं कि जब भी अच्छी लगने वाली कोई वस्तु हम ग्रहण कर रहे हैं, उस समय यह सोचें कि क्या इस वस्तु के बिना भी काम चल सकता है ? अगर चल सकता है तो उसे कभी भी न खरीदें, क्योंकि यही अपरिग्रह का मूल है। संतोष अपरिग्रह का बीज है, और सुखी जीवन इसका फल |
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