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________________ 281 ईशावास्योपनिषद् में कहा है कि -"तुम त्याग बुद्धिपूर्वक भोग करो, इससे दो बातें स्पष्ट होती हैं – धनार्जन में हमने हमारी शक्ति का जितना व्यय किया है, उसकी पूर्ति के लिए ही हमें भोग का अधिकार है। उससे अधिक नहीं। क्योंकि त्याग के बाद ही भोग सुखद लगता है।"120 मल विसर्जन के बाद ही भोजन का आस्वाद का आनन्द आता है। दूसरे यह कि विश्व में जो साधन-सामग्री है, उस पर विश्व के समस्त प्राणियों का अधिकार है। अतः उस पर केवल अपना अधिकार मानकर उसका संचय करना या उपभोग करना सामाजिक, आध्यात्मिक और आर्थिक दृष्टि से अपराध ही है। इसीलिए जैनदर्शन में यह कहा गया है कि धन का अर्जन सांसारिक जीवन अनिवार्य भाव है, फिर भी उसकी एक मर्यादा भी होनी चाहिए। क्योंकि मर्यादा से अधिक संचय करना नैतिक एवं धार्मिक दृष्टि से अनुचित है। धन के संचय से अभिप्राय जीवन के भौतिक साधनों से है। मनुष्य अधिकतम समय तक जीना चाहता है, स्वयं की सुरक्षा चाहता है, इसलिए साधनों को जुटाने में धनसंचय की प्रमुख भूमिका रहती है। धनार्जन स्वरक्षा की दृष्टि से व्यक्ति को आश्वस्त करता है। उसके द्वारा वह आवास, वस्त्र, अन्न, अस्त्र-शस्त्र आदि विभिन्न उपकरण जुटाकर अपने जीवन को मृत्युपर्यन्त निरापद एवं सुखी बनाना चाहता है। इसीलिए धनार्जन की प्रवृत्ति मानव में इतनी गहरी चली गई है कि इसके लिए वह उचित-अनुचित तरीकों का उपयोग करने में भी हिचकिचाता नहीं है। धनार्जन और धनसंचय अपने आप में बुरे नहीं है। केवल धन के अर्जन और संचय के तौर-तरीके उचित और धर्म-संगत होना चाहिए। धन का संचय अधिक हो जाय तो उसका दान किया जाना चाहिए। अन्यथा वह हमें ही ले डूबता है। मनुष्य का अधिकार केवल उतने ही धन पर है जितने से उसकी भूख मिट जाए। अधिक संपत्ति का संग्रह दूसरे के हक पर डाका डालने के समान है। 120 ॐ ईशावास्यमिद सर्व यत्किंच जगत्यां जगत। तेन त्यक्तेन भुंजीथा मा गृधः कस्यस्विहतमृ।। - ईशावास्योपनिषद, गाथा-1 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003971
Book TitleJain Darshan ki Sangna ki Avdharna ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPramuditashreeji
Publication Year2011
Total Pages609
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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