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भारतीय चिंतकों ने सदा से ही इस बात को माना है कि एक अच्छे उद्देश्य के लिए भी हम बुरे साधनों को जितना अपनाते हैं, तो उतना हमारा साध्य भी दूषित हो जाता है। अतः धन की उपलब्धि के लिए भी अनैतिक साधनों का उपयोग वर्जित किया गया है। "धन के उपार्जन के संदर्भ में नैतिक मूल्यों का अर्थ है कि - (1) धनार्जन केवल व्यक्तिगत इच्छाओं की संतुष्टि के लिए ही न किया जाए, अपितु उसकी भागीदारी दूसरों के साथ भी हो। इसलिए 'दान' को महत्त्व दिया गया है। 121 (2) केवल उतना ही धनोपार्जन किया जाए जो यथार्थ आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए आवश्यक हो। 122 क्योंकि महाभारत में तो स्पष्ट कहा गया है कि भौतिक दरिद्रता एक बुराई और पाप की अवस्था है। 123 मनुष्य के सभी अपने सद्गुण तभी चरितार्थ हो पाते हैं जब उसके पास धन होता है। अतः यह कहा जा सकता है कि धर्म, सुख, साहस, ज्ञान और गौरव धन से ही निःसृत हैं।124 तात्पर्य यह है कि मनुष्य को अपनी और अपने परिवार की मूल आवश्यकताओं की संतुष्टि के लिए धनोपार्जन आवश्यक है। यह धनोपार्जन उसे स्वयं अपने परिश्रम से और धर्मानुसार ही करना चाहिए। धन का संचय जीवित बना रहने में सहायक हो सकता है, लेकिन अच्छे जीवन के लिए धन को धर्मानुसार मर्यादित होना चाहिए।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि धन का अर्जन तो न्याय-नीतिपूर्वक करना चाहिए पर धन के संचय की परिसीमा या मर्यादा क्या होगी ? कितना धनसंचय रखना उचित माना जाएगा और कितन अनुचित ? धनसंचय की परिसीमा का निर्धारण कौन करेगा -व्यक्ति या समाज ? इन प्रश्नों को लेकर डॉ. कमलचन्द सोगानी ने अपने एक लेख में विचार किया है।125 जैन आचार्यों ने इन प्रश्नों की मर्यादाओं को खुला छोड़ दिया था। उन्होंने यह मान लिया था कि व्यक्ति कितन
121 महाभारत , 12-121-22 12 भागवत, 7-14-6 123 महाभारत, 12/8/14 124 वही, 12/8/21 125 देखें, तीर्थकर, मई-1977, पृ. 79
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