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पड़ता है। इसलिए न्यायवृत्ति एवं परमार्थदृष्टि से धन-उपार्जन करना ही श्रेष्ठ उपाय है। जैसे –'मेंढक जलाशयों की ओर एवं पक्षी पूर्ण सरोवर की तरफ स्वतः खिंचे हुए चले आते हैं, वैसे ही शुभकर्म वाले व्यक्ति के पास सभी संपत्तियाँ स्वतः ही चली आती हैं।" 116 जो धन धर्मानुसार अर्जित और धर्मानुसार व्यय किया जाता है वही अर्थ मूल्यवान होता है।'' अतः धनोपार्जन का लक्ष्य मात्र अपना सुख, समृद्धि आदि की वृद्धि करना ही नहीं, अपितु श्रमण-ब्राह्मण, दीन, अनाथ, अपंग, गरीब लोगों की सेवा करना भी है।
उत्तराध्ययनसूत्र में बताया गया है कि धन का उपार्जन कैसे किया जाना चाहिए ? इसमें कहा गया है कि -"जो मनुष्य अज्ञान के कारण पाप प्रवृत्तियों से धन का उपार्जन करते हैं, वे वासना और वैर (कर्म) से बंधे हुए, अन्त में मरने के बाद नरक में जाते हैं।"18 धनअर्जन का वहाँ तक विरोध नहीं है, जहाँ तक उसके साथ शोषण की दुष्प्रवृत्ति नहीं जुड़ती है। सम्पदा के अर्जन के साथ जब हिंसा, शोषण और संग्रह की बुराइयाँ जुड़ जाती हैं तभी वह अनैतिक बनता है, अन्यथा नहीं। भारतीय संस्कृति का आर्थिक आदर्श यह रहा है –“शत हस्त समाहर-सहस्त्र हस्त्र विकीर्ण' अर्थात् सौ हाथों से धन इकट्ठा करो और सहस्त्र हाथों से बांट दो। समाज-जीवन में शान्ति तभी सम्भव है, जब सम्पदा का उपभोग, संग्रह और वितरण नियन्त्रित हो। 119
व्यक्ति को अपनी जैविक आवश्यकताओं के लिए श्रम करना पड़ता है, उस श्रम से उपार्जित सम्पत्ति के भोग का भी अधिकार है, किन्तु उसको स्वामित्व का अधिकार नहीं। श्रम के द्वारा हमारी ऊर्जा शक्ति नष्ट होती है। उसकी पूर्ति के लिए आहार का भोग आवश्यक है। किन्तु यदि हम भावी आवश्यकता की पूर्ति के लिए संचय करते हैं तो दूसरे के अधिकारों का हनन है। भारतीय संस्कृति में
॥ योगशास्त्र - 1/46, विवेचना - अनुवादकर्ता – मुनि पद्मविजयजी, पृ. 81 11' भारतीय जीवन-मूल्य, डॉ. सुरेन्द्र वर्मा, पृ. 26 118 उत्तराध्ययनसूत्र - 4/2 11 जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन-भाग-2, डॉ. सागरमल जैन, पृ.240
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