________________
271
आचारांगसूत्र के द्वितीय श्रुतस्कन्ध में सूत्रकार फरमाते हैं कि यह तो संभव नहीं है कि इन्द्रियाँ अपने विषय को ग्रहण न करे, अर्थात् यह सम्भव नहीं कि कान शब्दों को ग्रहण न करे, यह भी सम्भव नहीं कि आँख रूप का ग्रहण न करे, नाक गन्ध का ग्रहण न करे, जीभ स्वाद का अनुभव न करे तथा त्वचा स्पर्श से सदा दूर रहे। ऐसी स्थिति में साधु के लिए एक ही मार्ग शेष रह जाता है कि वह पाप से बचने के लिए उन विषयों में रागभाव या द्वेषभाव न करे। इस प्रकार आचरण करता हुआ साधक परिग्रह के पाप से बच जाता है। अपरिग्रहवृत्ति संवर द्वार श्रेष्ठ वृक्ष है। भगवान महावीर का परिग्रह निवृत्ति का उपदेश उसी अपरिग्रह रूपी वृक्ष का फैलाव है। सम्यक्त्व उसका मूल है। घृति उसका कन्द है, विनय उसकी वेदिका है, तीनों लोकों में व्याप्त यश उसका स्कन्ध है। पांच महाव्रत उसकी विशाल शाखाएं हैं, भावनाएँ उसकी त्वचा है। शुभ ध्यान, प्रशस्त योग एवं ज्ञान उसके पत्ते एवं अंकुर हैं। शील उसकी शोभा है, संवर उसका फल है, बोधि उसका बीज है और मेरूशिखर के समान मोक्ष मार्ग उसका श्रेष्ठ शिखर है। अतः साधक को शिखर रूपी मोक्ष को प्राप्त करने के लिए अपरिग्रह का पूर्ण रूपेण पालन करना चाहिए। ज्ञानसार में कहा है कि –“परिग्रह का त्याग करते ही साधु के सारे पास क्षय हो जाते हैं, जिस तरह पाल टूटते ही तालाब का सारा पानी बह जाता है।
90 (क) न सक्का न सोउं सदा, सोतविसयमाणया।
रागदोसा उ जे तत्थ, ते भिक्खु परिवज्जए ।। 131 ।। नो सक्का रूवमद्दट्टुं : चक्षुविसयमागयं । रागदोसा उ जे तत्थ, ते भिक्खू परिवज्जए ।। 132 ।। न सक्का गंधमग्धाउं, नासाविसयमागयं । रागदोसा उ जे तत्थ, ते भिक्खू परिवज्जए ।। 133 || न सक्का रसमस्साउं, जीहाविसयमागयं। रागदोसा उ जे तत्थ, ते भिक्खु परिवज्जए || 134 ।। न सक्का फासमवेएउं, फासविसयमागयं। रागदोसा उ जे तत्थ, ते भिक्खू परिवज्जए ।। 135।।
- आचारांगसूत्र, द्वितीय श्रुतस्कन्ध अ.15, सू. 790, गा. 131-135 (ख) सोइंदियरागोवरई, चक्खिदियारागोवरई, घाणिंदियरागोवरई, जिमिंदियरागोपरई, फासिंदियरागोवरई।" - समवायसूत्र – 25 (ग) आचारांग चूर्णिसम्मत विशेष पाठ, टि. पृ. 281 "त्यक्ते परिग्रहे साधोः, प्रयाति सकलं रजः पालित्यागे क्षणादेव, सरसः सलिलं यथा- ज्ञानसार, 5/197
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org