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________________ 272 संतोषवृत्ति और अपरिग्रह - संतोष रूपी महान् गुण अपनी आत्मा में प्रवेश कर जाएं तो परिग्रह की समस्या स्वतः ही खत्म हो जाती है। जब संतोष आ गया तो फिर वस्तु को प्राप्त होने में भी संतोष रहता है और न होने में भी संतोष रहता है। कोई अशान्ति नहीं, कोई अशुद्ध चिन्तन नहीं। सारी अशान्ति वहीं हैं, जहाँ संतोष नहीं है। क्योंकि असंतोष के कारण ही अन्याय से अर्थोपार्जन करते हैं, मन में यह भाव सदा बने रहते हैं किस प्रकार से ज्यादा से ज्यादा धन प्राप्त करूँ। ऐसा व्यक्ति एक ही नहीं भावी पीढ़ियों की चिन्ता भी करता है। बस इसी चिन्तन के साथ पतन का मार्ग प्रारंभ हो जाता है। "सगरचक्रवर्ती के साठ हजार पुत्र हुए, तब भी उसे तृप्ति नहीं हुई। कुचिकर्ण के पास बहुत-से गायों के गोकुल थे, फिर भी उसे संतोष नहीं हुआ, तिलकसेठ के पास अनाज के अनेक गोदाम भरे थे, फिर भी उसकी तृप्ति नही हुई और नंदराजा को सोने की पहाड़ियाँ मिलने पर भी संतोष नहीं हुआ। इसलिए परिग्रह कितना भी कर लो वह असंतोष का ही कारण है। साथ ही धनासक्त मम्मण वणिक के पास अपार धन था पर धनलोलुपता एवं असंतोषवृत्ति के कारण उसकी दुर्गति हो गई। इसलिए कहा गया है असंतोष भी संचयवृत्ति तथा तद्जन्य दुःखों का कारण है। श्रावक के बारह व्रतों में 'स्थूल परिग्रह विरमण व्रत' और 'उपभोग-परिमाणव्रत' इच्छा परिसीमन का एक व्यावहारिक रूप है। इसमें संकल्पबद्ध होकर कम से कम वस्तुओं के प्रयोग से जीवन निर्वाह का अभ्यास किया जाना चाहिए। जैन कषायों में पुणिया श्रावक अपरिग्रह संस्कृति का आदर्श चरित्र है। जिसमें वह दिन-भर रूई से पुणियां बनाता है और उन्हें बेचकर जितना धन प्राप्त होता है, उसी में अपने परिवार का पालन-पोषण करते हुए सन्तुष्ट रहता है। महात्मा कबीरदास भी ऐसे ही 2 तृप्तो न पुत्रैः सगरः, कुचिकर्णो न गोधनैः । न धान्यैस्तिलकश्रेष्ठी, न नन्दः कनकोत्करै।। - योगशास्त्र 2/112 १ असंतोषमविश्वासमारंभं दुःखकारणम् । – वही 2/106 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003971
Book TitleJain Darshan ki Sangna ki Avdharna ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPramuditashreeji
Publication Year2011
Total Pages609
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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