SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 296
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 270 (3) अपने अधिक लाभ को देखकर अहंकार में डूब जाना और दूसरों के अधिक लाभ में विषाद करना, जलना-कुढ़ना 'अतिविस्मय' है। अपनी निर्धारित सीमा को भूल जाना या बढ़ाने की भावना करना भी इसी में शामिल है। मनचाहा लाभ होते हुए भी अधिक लाभ की आकांक्षा करना। क्रय-विक्रय हो जाने के बाद भाव घट-बढ़ जाने से, अधिक लाभ की सम्भावना को अपना घाटा मानकर संक्लेश करना 'अतिलोभ' है। (5) लोभ के वश होकर किसी पर न्याय-नीति से अधिक भार डालना तथा सामने वाले की सामर्थ्य के बाहर अपना हिस्सा, मुनाफा, ब्याज आदि वसूल करना 'अति-भारवाहन' है। अतः स्पर्शनादि पांचों इन्द्रियों के योग्य भोग-परिभोग की वस्तुओं में विशेष मूर्छा का होना तथा की गई मर्यादा को भूल जाना, इस प्रकार परिग्रह प्रमाणव्रत के पांच अतिचार हैं। व्रतधारी श्रावक-श्राविकाओं को ए अतिचार न लगें, इसकी सावधानी रखनी चाहिए। अपरिग्रहव्रत की पाँच भावना - ___ एक श्रमण के लिए अपरिग्रह व्रत पालन हेतु निम्न भावनाओं का विधान किया गया है – पाँचों इन्द्रियों के विषयों में आसक्ति का निषेध अथवा मनोज्ञा या अमनयोग्य स्पर्श, रस, गंध, रूप तथा शब्द पर समभाव रखना। ए भावनाएँ इंद्रियों के विषय में आसक्ति का निषेध करती हैं। एक मुनि को इन्द्रिय-विषयों में आसक्ति और कषायों के वशीभूत नहीं होना चाहिए। यही उसकी सच्ची अपरिग्रहवृत्ति है। 89 पंचेन्द्रियविषयानि सन्तिमनोज्ञामनोज्ञानि नित्यम् । रागद्वेषं जहाति भावनाऽपरिग्रहस्यपंच।। -उपासकाध्ययन 9/49 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003971
Book TitleJain Darshan ki Sangna ki Avdharna ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPramuditashreeji
Publication Year2011
Total Pages609
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy