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________________ 252 रूपी-अरूपी, स्थूल-अणु, किसी भी प्रकार की वस्तु हो, उसका संग्रह करना परिग्रह कहलाता है। परिग्रह या संचयवृत्ति के दुष्परिणाम - एक बार जम्बुस्वामी ने आर्य सुधर्मा से पूछा – भगवान् महावीर की दृष्टि में बंधन क्या है और उसे कैसे तोड़ा जा सकता है ? आर्य सुधर्मा ने उत्तर दिया - परिग्रह बंधन है और बंधन का हेतु है – ममत्व । प्रस्तुत प्रसंग में बंधन के हेतु के रूप में पहला स्थान परिग्रह को दिया गया है, हिंसा को उसके बाद में रखा गया है। इससे भी स्पष्ट है कि सभी आश्रवों में परिग्रह को गुरुतर आस्रव या बन्धन का हेतु माना गया है। वस्तुतः, जैनदर्शन में 'अर्थ' को ही मोटे तौर पर परिग्रह मान लिया गया है और कुल मिलाकर परिग्रह का या तो पूर्ण निषेध किया गया है (मुनिधर्म), अथवा उसे मर्यादित (सीमित) करने को कहा गया है (गृहस्थधर्म)। व्यक्ति का जब तक भौतिक जगत् से सम्बन्ध होता है, तो उसे अपने जीवन निर्वाह के लिए भौतिकसंसाधनों की आवश्यकता प्रतीत होती है, परन्तु जब यही आवश्यकताएं आसक्ति में बदल जाती हैं, तो एक ओर संग्रह होता है, दूसरी ओर संग्रह की लालसा बढ़ती जाती है। इसी से समाज में आर्थिक विषमता का बीज पड़ता है। एक ओर संग्रह (परिग्रह) बढ़ता है, तो दूसरी ओर गरीबी बढ़ती है। परिणामस्वरूप, आर्थिकविषमताओं के कारण समाज में कई दुष्परिणाम दिखाई देते हैं। कलिकालसर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्यरचित योगशास्त्र में कहा गया है -"इस परिग्रह में त्रसरेणु (सूक्ष्म रजकण) जितने भी कोई गुण नहीं है ; बल्कि उसमें पर्वत जितने बड़े-बड़े दोष पैदा 57 उक्तं हि - "आरम्भपरिग्रहौ बन्धहेतु" येऽपि च रागादयः तेऽपि नारम्भपरिग्रहावन्तरेण भवन्तीति, तेन तावेव वा गरीयांसाविति ........ तत्रापि परिग्रहनिमित्तं आरम्भः क्रियत इति कृत्वा स एव गरीयस्त्वात् पूर्वमुपदिश्यते - सूत्रकृतांगचूर्णि, पृ. 21-22 5 सूत्रकृतांग – 1/1/2-3 5 वही- 1/1/4 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003971
Book TitleJain Darshan ki Sangna ki Avdharna ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPramuditashreeji
Publication Year2011
Total Pages609
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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