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कहलाती है। जब व्यक्ति में लोभमोहनीय-कर्म का उदय होता है, तो अधिकाधिक संग्रह की लालसा उत्पन्न होती है। स्थानांगसूत्र में कहा है कि जिस प्रकार मांस के लिए गिद्ध आदि पक्षी चक्कर काटते हैं, उसी प्रकार लोभी मनुष्य इष्ट पदार्थों की प्राप्ति के लिए उद्यमशील रहता है। लोभ को आमिषावर्त कहा गया है। अतः, स्पष्ट है कि लोभमोहनीय-कर्म के उदय से ही व्यक्ति में परिग्रह-संज्ञा उत्पन्न होती है।
मोहनीय-कर्म
दर्शनमोहनीय-कर्म
चारित्रमोहनीय-कर्म
कषाय-मोहनीय
नोकषाय-मोहनीय
क्रोधमान माया लोभ
क्रोध
मान
माया
लोभ
देहासक्ति
3. परिग्रह को देखने से -
परिग्रह-संज्ञा की उत्पत्ति का तृतीय प्रमुख कारण परिग्रह-सामग्री को देखने से एवं उसे प्राप्त करने का मानस बनाने से है। मानव-मन की यह वृत्ति है कि "दूसरों की थाली में घी अधिक दिखाई देता है। मनुष्य के पास उसकी आजीविका निर्वाह करने के लिए पर्याप्त सामग्री है, पर जब उसकी दृष्टि दूसरों की सामग्री, जैसे मकान, दुकान, वस्त्र, आभूषण, गाड़ी आदि पर पड़ती है, तो उसे अपनी सामग्री कम लगती है। यह कमी की दृष्टि ही भौतिक-वस्तुओं के प्रति उसे आकर्षित करती है और परिग्रह-संज्ञा को उत्पन्न करती है। यह मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि महिलाओं के पास सौ साड़ियाँ होने पर भी जब वे अपनी पड़ोसिन या अन्य की नई साड़ियाँ देखती हैं, तो आवश्यकता न होने पर भी वह उन्हें खरीदने के लिए तैयार हो जाती हैं। यह वृत्ति आकांक्षा, इच्छा, परिग्रह-संज्ञा को बढ़ाती है।
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