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4. परिग्रह सम्बन्धी विचार करने से -
जिस प्रकार भोजन की चर्चा करते हैं, तो भोजन ग्रहण करने की इच्छा जाग्रत होती है, भय-संबंधी विचार करते हैं तो भय स्वतः ही लगने लगता है, काम-संबंधी विचार करते हैं, तो वासनाएं प्रकट होने लगती हैं, ठीक उसी प्रकार परिग्रह-संबंधी विचार करते हैं तो वस्तुओं को संचय करने की इच्छा जाग्रत होती है। मनुष्य के मन एवं मस्तिष्क में निरन्तर विचारों का क्रम चलता रहता है। व्यक्ति के विचार ही उसके कार्य के रूप में परिणत होते हैं। मन में यदि भविष्य में उपभोग के लिए वस्तु-संचय का विचार चल रहा है तो निश्चित रूप से वह संचय करने का प्रयास करेगा और अपने परिग्रह को बढ़ाएगा। अतः जैनदर्शन का कहना है कि मनुष्य को आवश्यकता से अधिक की संचयवृत्ति से बचना चाहिए।
परिग्रह का स्वरूप एवं लक्षण -
प्रश्नव्याकरणसूत्र के टीकाकार1 ने परिग्रह की व्याख्या करते हुए लिखा है -जो पूर्ण रूप से ग्रहण किया जाता है, वह परिग्रह है। पूर्ण रूप से ग्रहण करने का अर्थ है-ममत्वबुद्धि से ग्रहण करना। वास्तविक दृष्टि से तो परिग्रह आसक्ति, ममत्वबुद्धि या मूर्छा है।" मूर्छा का अर्थ है -किसी भी वस्तु के प्रति ममत्व का भाव। यह ममत्व की चेतना रागवश होती है और इसी चेतना के कारण अर्जन, संग्रह आदि के लिए प्राणी प्रयत्नशील रहता है। उत्तराध्ययनसूत्र के अनुसार, समग्र संसारी-जीवों के दुःखों का मूल कारण तृष्णा है। जिसकी तृष्णा समाप्त हो जाती है, उसका मोह भी समाप्त हो जाता है और जिसका मोह समाप्त हो जाता है, उसके दुःख भी समाप्त हो जाते हैं। मूर्छा या तृष्णा ही परिग्रह है। तृष्णा का ही दूसरा
16 परिसामस्तयेन ग्रहणं परिग्रहणं........मच्छविशेन परिग्रह्यते आत्मभावेन
ममेति बुद्धया ग्रह्यते इति परिग्रहः । - प्रश्नव्याकरणवृत्ति 215 " मुच्छा परिग्गहो वुत्तो। - दशवैकालिकसूत्र 6/20 18 उत्तराध्ययनसूत्र - 32/8
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