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________________ छाती में छुरा भोंककर उसकी हत्या कर दी थी। 202 23 तीर्थकर प्रभु पार्श्वनाथ का प्रथम भव मरुभूति का था । मरुभूति और कमठ दोनों भाई थे, पर मरुभूति की पत्नी अति रूपवान होने से कमठ उस पर बुरी नजर रखता था। जब यह बात मरुभूति को ज्ञात हुई, तो कमठ को राजा ने नगर में घुमाकर अपमानित कर नगर से बाहर निकाल दिया । स्त्रीरुप के कारण ही भगवान् के दस भवों में कमठ हर समय प्रभु का द्वेषी बना और अन्त में उसकी दुर्गति हुई। 203 परस्त्री चाहे कितनी ही लावण्ययुक्त हो, शुभ आंगोपांगों से युक्त हो, सौंदर्य एवं सम्पत्ति का घर हो तथा विविध कलाओं में कुशल हो, फिर भी उसका त्याग करना चाहिए, अतः परस्त्री को त्याज्य समझकर छोड़ना चाहिए | 204 मानव–देह का अस्तित्व आयुष्य की सीमाओं में बंधा हुआ है । लाख कोशिश करने के बावजूद भी इसे शाश्वत जीवन देने में कोई सक्षम नहीं हुआ है। विश्व रंगमंच पर अनेक आत्माओं को मानवदेह मिलती है, किन्तु उसे सफल व सार्थक बनाने वाले विरले ही हुए हैं। इतिहास के पृष्ठों पर स्वर्णाक्षरों से अंकित उन महापुरुषों के पवित्र जीवन का जब अवलोकन करते हैं, तब अपना हृदय उन महान् विभूतियों के चरणों में सहजता से झुक जाता है । ब्रह्मचर्य-धर्म की साधना वाले बाईसवें तीर्थंकर श्री नेमीनाथ, विजय सेठ और विजया सेठानी, जंबुकुमार, सुदर्शनसेठ, स्थूलभद्र, वज्रस्वामी आदि अनेक साधक हुए हैं, जिन्होंने ब्रह्मचर्य की साधना के द्वारा आत्मकल्याण किया । इससे सिद्ध होता है कि मैथुन - संज्ञा पर विजय प्राप्त की जा सकती है। 202 भरहेसर - सज्झाओ, गाथा - 8 श्री श्राध्ध प्रतिक्रमणसूत्र प्रबोधटीका, भाग 2, पृ. 468 'श्रीकल्पसूत्र, छट्टी वाचना, हिन्दी अनुवाद -श्री आनन्दसागरसूरीश्वरजी म.सा., पृ. 280 'लावण्यपुण्यावयवां पदं सौन्दर्यसम्पदः । कलाकलापकुशलामपि जह्यात् परस्त्रियम् ।। योगशास्त्र - 2 / 100 203 204 -000 Jain Education International 230 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003971
Book TitleJain Darshan ki Sangna ki Avdharna ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPramuditashreeji
Publication Year2011
Total Pages609
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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