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हो जाएंगी। वहां न तो कोई कषाय रहेंगे, न कोई लेश्या शुक्ललेश्या को छोड़कर न ही वेद।
उपसंहार -
मैथुनसंज्ञा या कामवासना प्राणीय-जीवन का अपरिहार्य अंग है। प्रजाति के संरक्षण में भी वह एक आवश्यक तथ्य है, फिर भी वह मात्र दैहिक-तथ्य है, आध्यात्मिक-विकास के लिए देहातीत या वासना से मुक्ति होना आवश्यक है।
इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठों पर जिनका नाम आज भी दैदीप्यमान है, ऐसे अनेक महापुरुष और महासतियाँ हुए हैं उन्होंने अपने जीवन में कामवासना का निरसन करके ही अपनी आत्मा का कल्याण किया था। उनका जीवन वर्तमान युग में आदर्श स्वरुप है। यह स्पष्ट है कि जब तक कामवासनाओं का निरसन या क्षय नहीं होगा और ब्रह्मचर्य की साधना नहीं होगी, तब तक आध्यात्मिक-विकास संभव नहीं हो सकता। यह शास्त्र-प्रमाणित तथ्य है कि जितने भी महायुद्ध और संग्राम हुए, कुछ को छोड़कर सभी महायुद्ध मैथुन-संज्ञा के कारण ही हुए हैं। सीता, द्रौपदी, रुक्मिणी, पद्मावती, तारा, कांचना, रक्तसुभद्रा, अहिल्या, स्वर्णगुटिका, किन्नरी, सुरुपविद्युन्मति और रोहिणी आदि के लिए जो संग्राम हुए हैं, उनका मूल कारण मैथुन-संज्ञा ही था।198 दूसरे शब्दों में, मैथुन-संबंधी काम-वासना के कारण ये सब महायुद्ध हुए। कहते हैं- "अब्रह्म का सेवन करने वाले इस लोक में तो नष्ट होते ही हैं, परलोक में भी उनकी दुर्गति होती है, 199 जैसे – सीता के रूप में मुग्ध बने रावण को बेमौत मरना पड़ा था और अन्त में नरक में जाना पड़ा था। द्रोपदी को प्राप्त करने के लिए अमरकंका देश के राजा की युद्ध में दुर्गति हुई और उसे अपमान सहन करना पड़ा। 201 मदनरेखा के रुप में पागल बने मणिरथ ने अपने सगे भाई युगबाहु की
198 प्रश्नव्याकरणसूत्र - 4/91 199 'इहलोए ताव णट्ठा, परलोए वि य णट्ठा महया। – वही -4/91 200 विक्रमाक्रान्तविश्वोऽपि परस्त्रीषु रिम्सया
कृत्वा कुलक्षयं प्राप नरकं दशकन्धराः । - योगशास्त्र -2/99 201 1) स्थानांगसूत्र - 10/160 2) प्रवचनसारोद्धार, आश्चर्यद्वार - 138, साध्वी हेमप्रभा श्रीजी
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