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________________ 222 15. आत्म-स्वरुप विचार - निश्चयदृष्टि से देखा जाए तो आत्मा न पुरुष है और न स्त्री। यह स्त्री है, यह पुरुष है -यह तो दैहिक-धर्म है। स्त्री व पुरुष –दोनों के देह में रही हुई आत्मा तो शुद्ध चैतन्यस्वरुप ही है। प्रेम तो आत्मा से होना चाहिए, क्योंकि वह सहज है। देह से प्रेम तो औपाधिक है। मैं देह नहीं, किन्तु आत्मा हूँ। देह के धर्म मेरे वास्तविक धर्म नहीं हैं, अतः दैहिक-धर्मों में आकर्षित होना अज्ञानस्वरुप है। इस प्रकार, आत्म-स्वरुप का चिंतन करने से भी आत्मा विकारमुक्त बनती है और ब्रह्मचर्य की साधना सुगम बनती है। 16. व्रत-स्वीकार - प्रतिज्ञा के स्वीकार से मनोबल मजबूत बनता है। जीवनपर्यन्त अथवा वर्ष में अमुक दिनों में ब्रह्मचर्यपालन का नियम कर अपने मन को अशुभ विचारों से रोक सकते हैं। 17. तप - ब्रह्मचर्य की साधना में तप-धर्म का विशेष महत्त्व है। तप की साधना से भीतर की वासनाएं निर्जरित हो जाती हैं। काम-क्रोध आदि विकार तप से जलकर भस्मीभूत हो जाते हैं, शर्त यह है कि तप विवेकपूर्ण होना चाहिए। बार-बार भोजन करने से, अतिमात्रा में आहार लेने से एवं मादक भोजन करने से कामविकार जाग्रत होते हैं, अतः साधक को अपने दैनिक जीवन में भी तप का आश्रय लेना चाहिए। साधु के लिए दशवैकालिक में ‘एगभतं च भोयणं 192 {दिन में एक बार सात्विक भोजन) का जो विधान किया गया है, वह एकदम युक्तिसंगत है। दिन में एक बार सात्त्विक भोजन लेने से शरीर के लिए आवश्यक ऊर्जा-शक्ति की भी प्राप्ति हो जाती है और दैनिक आराधना-साधना में भी नियमितता रहती है। कामवासनाओं का भोजन के साथ सीधा संबंध है। तप के द्वारा आहार-संयम होते ही काम पर आसानी 192 दशवैकालिकसूत्र -6, गाथा-23 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003971
Book TitleJain Darshan ki Sangna ki Avdharna ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPramuditashreeji
Publication Year2011
Total Pages609
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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