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12. शयनगृह -
ब्रह्मचारी को स्त्री आदि से रहित स्वतंत्र शयनगृह में सोना चाहिए। सोने के लिए बिस्तर अत्यन्त कोमल व मुलायम नहीं होना चाहिए। शयनकक्ष में महापुरुषों के चित्र अंकित होना चाहिए ताकि उन्हें देखकर मन में ही शुभ भाव पैदा हो सकें।
13. एकांत का त्याग -
अपेक्षा से एकान्त लाभकर भी है और हानिकर भी। राम और रमा –दोनों का ध्यान एकान्त में ही होता है। एकान्त में ही कान्त की प्राप्ति होती है। राम और काम- दोनों से मिलन एकान्त में ही होता है। इन सब बातों से स्पष्ट है कि जिसका मन स्वाधीन है, ऐसे साधक के लिए एकान्त लाभकारी है और जिसका मन पराधीन है, ऐसे व्यक्ति को एकान्त मिलने पर उसका मन कुविचार में भटक जाता है। ऐसे व्यक्ति को ज्एष्ठ पुरुषों के सान्निध्य में ही रहना चाहिए। माता-पिता व गुर्वादि के सान्निध्य में रहने से अशुभ विचारों से पूर्णतया बचा जा सकता है।
लज्जा-गुण के कारण या दूसरे व्यक्ति की उपस्थिति भी व्यक्ति को पाप करने से बचा देती है, क्योंकि दूसरों की उपस्थिति में पाप का भय पैदा होता है। इसी नियम के अनुसार श्रमण-जीवन में एकाकी विहार का निषेध है और गुर्वादि के सान्निध्य में ही बैठने का विधान है। 14. रुचिपूर्वक सर्जन में लीन रहें -
मन को सदा वशीभूत करने के लिए अपनी अभिरुचि का काम उसे सतत करते रहना चाहिए। अपने रुचिपूर्वक सर्जन में लीन मन भटकेगा नहीं। स्तुति-सर्जन में लीन शोभनमुनि को यह पता ही नहीं चला कि उनके पात्र में किसी ने पत्थर रख दिया। भामती टीका के सृजन में लीन वाचस्पति मिश्र इस बात को भी भूल चुके थे कि वे विवाहित हैं। साहित्य, काव्य, स्तुति, गीत, कला आदि में लीन मन अन्य विकृत विचारों से मुक्त बन जाता है। इससे स्पष्ट है कि मन को किसी सर्जनात्मक कार्य में लगा दें, तो किसी प्रकार के अशुभ विचार छू नहीं सकते।
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