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________________ रस, रक्त उत्तेजित हो जाते हैं और उससे विकार बढ़ते हैं । प्रणीत आहार से धातु कुपित होने से मन चंचल हो जाता है और गरिष्ठ भोजन से आलस्य और प्रमाद आता है तथा मन की कुत्सित वृत्तियाँ जाग्रत होती हैं, इसलिए साधक के लिए वासनाओं के प्रशम के लिए प्रणीत भोजन का निषेध है। कहा गया है जो आवश्यकता से अधिक भोजन नहीं करता है, वही ब्रह्मचर्य का साधक सच्चा निर्ग्रन्थ है । 162 ब्रह्मचर्य की इन पाँच भावनाओं के सतत चिन्तन व मनन से मन ब्रह्मचर्य में स्थिर होता है, सुसंस्कार सुदृढ़ होते हैं और साधक ब्रह्मचर्य को दूषित करने वाले घटकों से बचता है । जिस प्रकार अनाज उत्पन्न करने वाले खेत की सुरक्षा के लिए काँटों की बाड़ लगाई जाती है, आम के फल से लदे वृक्षों की सुरक्षा के लिए तारों की बाड़ बनाई जाती है, उसी प्रकार ब्रह्मचर्य व्रत की सुरक्षा के लिए शास्त्र में नौ बाड़ों का विधान किया गया है, जो निम्न हैं 163 स्थानांगसूत्र के अनुसार पशु, 1. विविक्त शयनासन ब्रह्मचारी ऐसे स्थान पर शयन-आसन करे, जो स्त्री, नपुंसक से संसक्त न हो । - 205 2. स्त्री - कथा - परिहार स्त्रियों की सौन्दर्य- वार्त्ता, कथा- वार्त्ता आदि की चर्चा न करे । — 3. निषद्यानुपवेशन – स्त्री के साथ एकासन पर न बैठे। उसके उठ जाने पर भी एक मुहूर्त तक उस आसन पर न बैठे। Jain Education International — 4. स्त्री - अंगोपांग - अदर्शन - स्त्रियों के मनोहर अंग - उपांग ने देखे, यदि कदाचित् उस पर दृष्टि चली जाए, तो पुनः हटा ले, फिर उसका ध्यान न करे । 162 नाइमत्त्पाणाभोयणाभोई से निग्गंथे - आचारांगसूत्र - 2/3/15/14 163 3 स्थानांगसूत्र - 9 / 4 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003971
Book TitleJain Darshan ki Sangna ki Avdharna ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPramuditashreeji
Publication Year2011
Total Pages609
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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