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________________ 204 देखकर कई श्रमणों के मन विचलित हो गए थे, तब भगवान् ने उन्हें उद्बोधन दिया कि प्रायश्चित्त ग्रहण करो, शुद्धीकरण करो। 4. पूर्वक्रीड़ित-रति-विरति-भावना - इस भावना में पूर्वकाल में, अर्थात् गृहस्थावस्था में भोगे हुए भोगों के चिन्तन के वर्जन की प्रेरणा की गई है। बहुत से साधक ऐसे होते हैं, जो गृहस्थदशा में दाम्पत्य जीवन यापन करने के पश्चात् मुनिव्रत अंगीकार करते हैं। उनके मस्तिष्क में गृहस्थ-जीवन की घटनाओं के संस्कार या स्मरण संचित होते हैं। वे संस्कार निमित्त पाकर उभर उठें, तो चित्त को विभ्रान्त कर देते हैं, चित्त को विकृत बना देते हैं। कभी-कभी मुनि अपने कल्पना-लोक में उसी पूर्वावस्था में पहुंचा हुआ अनुभव करने लगता है। वह अपनी वर्तमान स्थिति को कुछ समय के लिए भूल जाता है। यह स्थिति उसके तप, संयम एवं ब्रह्मचर्य का विघात करने वाली होती है, इसलिए ब्रह्मचारी पुरुष को ऐसे प्रसंगों से निरन्तर बचना चाहिए, जिनसे काम-वासना को जाग्रत होने का अवसर मिले। गीता161 में भी कहा है –'विषयों का चिन्तन व स्मरण करने से पुरुष उन विषयों के प्रति आसक्त हो जाता है। 5. प्रणीत आहार-विरति-समिति-भावना - ब्रह्मचर्य की साधना एवं कामवासनाओं के निरसन के लिए बाह्य–परिवेश का जितना गहरा प्रभाव पड़ता है, उतना ही आहार का भी है। आहार का सीधा असर मन पर होता है। यदि मसालेदार चटपटा भोजन किया जाए, तो मन चंचल होगा, इसलिए शरीर विशेषज्ञों का मत है कि सात्विक भोजन से मन में विशुद्धता बनी रहती है। 'आहार शुद्धौ सत्त्वशुद्धि' – आहार शुद्ध होने से सत्त्व भी शुद्ध होता है। प्रणीत आहार, अर्थात् अधिक गरिष्ठ आहार और अधिक मात्रा में आहार ब्रह्मचर्य की साधना से विचलित करता है। साधक को न तो अति स्निग्ध आहार करना चाहिए, न अधिक मात्रा में आहार करना चाहिए। प्रणीत आहार से शरीर में 160 दशाश्रुतस्कन्ध - 10 161 'ध्यायते विषयान् पुंसः संथस्तेषूपजायते'- गीता – 2/62 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003971
Book TitleJain Darshan ki Sangna ki Avdharna ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPramuditashreeji
Publication Year2011
Total Pages609
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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