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व्यक्तियों के विवाह-सम्बन्ध या नाते-रिश्ते करवाने की प्रवृत्ति में रुचि लेता रहे तो वह कार्य उसकी भोगाभिरुचि को प्रकट करेगा और मन की निराकुलता में बाधक होगा, अतः गृहस्थ-साधक के लिए स्वसंतान एवं परिजनों के अतिरिक्त अन्य व्यक्तियों के विवाह-सम्बन्ध कराने का निषेध है, किन्तु डॉ. सागरमल जैन ने इसका भिन्न अर्थ किया है। वे पर-विवाह का अर्थ दूसरा विवाह करना या व्रतग्रहण के बाद अन्य विवाह करना करते हैं। 5. कामभोग-तीव्राभिलाषा -
कामवासना के सेवन की तीव्र इच्छा रखना, अथवा कामवासना के उत्तेजन के लिए कामवर्द्धक औषधियों व मादक द्रव्यों का सेवन करना भी जैन-गृहस्थ के लिए निषिद्ध है, क्योंकि तीव्र कामासक्ति और तज्जनित मानसिक-आकुलता विवेक को भ्रष्ट कर साधक को साधना-पथ से च्युत कर देती है।
इस प्रकार, ब्रह्मचर्याणुव्रत का पालन श्रावक-श्राविका को अवश्य करना चाहिए। इस प्रकार ही कम करते-करते एक समय सम्पूर्ण वासनाओं का क्षय भी कर सकते हैं।
अब्रह्मचर्य और हिंसा -
जैनदर्शन के अनुसार, एक बार संभोग करने से जघन्यतः एक, दो या तीन और उत्कर्षतः नौ लाख जीव उत्पन्न होते हैं। 144 जयाचार्य के अनुसार, ये नौ लाख संज्ञी (समनस्क) जीव होते हैं। संभोग के समय जो असंज्ञी (अमनस्क) जीव पैदा होते हैं, उनकी संख्या तो इससे कहीं अधिक है। इस बात को स्पष्ट करने के लिए भाष्यकार ने कहा है – मछली के साथ-साथ नौ लाख बच्चे उत्पन्न हो सकते हैं, उसी प्रकार स्त्री-पुरुष की योनि में एक साथ नौ लाख जीव उत्पन्न हो सकते हैं,
14 क) प्रवचनसारोद्धार, द्वार- 246/1364 ख) गोयमा! जहण्णेणं एक्को वा दो वा तीणि वा।
उक्कोसेणं सयसहस्सपुहतं जीवा णं पुत्तत्ताए हव्वमागच्छंति।। - भगवई 5/88
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