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________________ से, अर्थात् अपनी काया से स्वपत्नी के अतिरिक्त शेष मैथुन का परित्याग करना होता है । स्वपत्नीसन्तोषव्रती को निम्न पांच दोषों से बचने का विधान है 143_ 1. इत्वरपरिगृहीतागमन इत्वरपरिग्रहीतागमन, अर्थात् अल्प समय के लिए संभोग के लिए पत्नी के रुप में गृहीत स्त्री से समागम करना, या वाग्दत्ता (अल्पवयस्क पत्नी) के साथ समागम करना। इस प्रकार गृहस्थ के लिए संभोग के लिए अल्पकाल के लिए परिगृहीत वाग्दत्ता और अल्पवयस्का पत्नी के साथ मैथुन करने का निषेध किया गया है । 2. अपरिगृहीतागमन अपरिगृहीता, अर्थात् वह स्त्री जिस पर किसी का अधिकार नहीं है, अर्थात् वेश्या । वेश्या के साथ समागम करना - यह अपरिगृहीतागमन है । कुछ आचार्य अपरिगृहीत का अर्थ करते हैं - किसी के द्वारा ग्रहण नहीं की गई, अर्थात् कुमारी या स्व के द्वारा अपरिगृहीत पर - स्त्री को भी अपरिगृहीत माना गया है, अतः वेश्या, कुमारी अथवा पर - स्त्री से काम - सम्बन्ध रखना व्रती गृहस्थ के लिए निषिद्ध है । 3. अनंगक्रीड़ा 197 मैथुन के स्वाभाविक अंगों से काम-वासना की पूर्ति न करके अप्राकृतिक अंगों जैसे - हस्त, मुख, गुदादि आदि से वासना की पूर्ति करना, अथवा समलिंगी से मैथुन करना, या पशुओं के साथ मैथुन करना आदि । गृहस्थ-साधक को वासनापूर्ति के ऐसे अप्राकृतिक कृत्यों से बचना चाहिए । 4. परविवाहकरण - गृहस्थ - जीवन में व्यक्ति को अपने परिवार के सदस्यों के विवाह-संस्कार करने होते हैं, लेकिन यदि गृहस्थ-साधक स्वसंतान एवं परिजनों के अतिरिक्त अन्य 143 31 ) उपासकदशांग - 1 /44 2) जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, भाग-2, डॉ. सागरमल जैन, पृष्ठ 281 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003971
Book TitleJain Darshan ki Sangna ki Avdharna ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPramuditashreeji
Publication Year2011
Total Pages609
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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