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होते हैं और आगे भी होंगे। 140 अन्य व्रत के परिपालन हेतु, ज्ञानवृद्धि के लिए, कषाय पर विजय पाने हेतु, स्वछंद वृत्ति की निवृत्ति के लिए यह आवश्यक है कि श्रमण गुरु-चरणों में रहे। इस उद्देश्य से गुरुकुलवास को भी ब्रह्मचर्य कहा है।141
ब्रह्मचर्याणुव्रत (स्वदारसन्तोष-व्रत}142 -
जैन-साधना में जहाँ श्रमण साधक पूर्ण ब्रह्मचर्य का व्रत लेकर स्त्री-पुरुष सम्बन्धी काम-क्रिया से पूर्णतया विरत हो जाता है, वहाँ गृहस्थ के लिए कम से कम इतना तो आवश्यक माना गया है कि यदि वह अपनी भोगलिप्सा का पूरी तरह त्याग न कर सके, तो उसे स्वपत्नी तक सीमित रखे एवं सम्भोग की मर्यादा करे अर्थात् उसे सीमित करे। स्वपत्नी-सन्तोषव्रत का प्रतिज्ञासूत्र उपासकदशांग में इस प्रकार है -“मैं स्वपत्नीसन्तोषव्रत ग्रहण करता हूँ ..........) नामक पत्नी के अतिरिक्त अवशिष्ट मैथुन का त्याग करता हूँ।"
इस व्रत की प्रतिज्ञा से स्पष्ट ही है कि यह अन्य अणुव्रतों की अपेक्षा विशिष्ट है। जहाँ उन व्रतों की प्रतिज्ञा में करण और योग का उल्लेख किया गया है, वहाँ इस व्रत की प्रतिज्ञा में आगम में उनका उल्लेख नहीं है। टीकाकार की दृष्टि में इसका कारण यह हो सकता है कि गृहस्थ-जीवन में सन्तान आदि का विवाह कराना आवश्यक होता है। इसी प्रकार, पशु-पालन करनेवाले गृहस्थ के लिए उनका भी परस्पर सम्बन्ध कराना आवश्यक हो जाता है, अतः इसमें दो करण और तीन योग न कहकर श्रावक को अपनी परिस्थिति एवं सामर्थ्य पर छोड़ दिया गया है। फिर भी, इतना तो निश्चित ही है कि गृहस्थ-साधक को एक करण और एक योग
140 उत्तराध्ययनसूत्र 16/17 141 क) तत्त्वार्थसूत्र 9/6, भाष्य 10
ख) स्वतन्त्र वृत्तिनिवृत्त्यर्थो वा गुरूकुलवासो ब्रह्मचर्यम् - सर्वार्थसिद्धि - 9/6 142 योगशास्त्र - 2/76
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