________________
169
चिन्ता- उसका कैसा सुन्दर रुप है ? उसके कैसे गुण हैं ? इस प्रकार का
रागवश चिन्तन करना।
3. श्रद्धा - स्त्री-संभोग की अभिलाषा करना। 4. संस्मरण- स्त्री के रुप की कल्पना करके अथवा चित्र आदि देखकर स्वयं को
सान्त्वना देना।
5. विक्लव- वियोग-जन्य व्यथा के कारण आहार आदि की उपेक्षा करना।
6. लज्जानाश-गुरुजनों की लज्जा छोड़कर उनके सम्मुख प्रेमिका के गुणगान
करना।
7. प्रमाद - स्त्री के लिए विविध क्रियाएं करना।
8.
उन्माद- विक्षिप्त की तरह प्रलाप करना।
9. तद्भावना-स्त्री की कल्पना से स्तंभादि का आलिंगन करना। 10. मरण - राग की तीव्रता के कारण असह्य व्यथा से मूर्छित हो जाना। यहाँ
मरण का अर्थ प्राणत्याग से नहीं है, श्रृंगाररस का भंग हो जाने से
वृत्तिकार अभिनव गुप्त ने भी इसकी व्याख्या इसी प्रकार की है।
जैनदर्शन की वेद (कामवासना) और लिंग (शारीरिक संरचना) की अवधारणा
वैदिक-दर्शन में जहाँ वेद शब्द ज्ञान के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है, वहीं जैनदर्शन में वेद शब्द अनुभूति के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। इसके दो रुप हैं - ज्ञानात्मक और संवेदनात्मक। उत्तराध्ययनसूत्र में वेद ज्ञान के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। कहा गया है जिससे तत्त्व का ज्ञान किया जाता है, उसे वेद (आगम) कहते हैं।
75 उत्तराध्ययनसूत्र- 15/2
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org