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________________ 165 प्राकृत-कामोत्तेजना मनुष्य के शरीर की बनावट का एक भाग है जो कर्मप्रकृतियों के अनुसार वेदोदय का निमित्त बनती है। ऐच्छिक-कामोत्तेजना से तात्पर्य इच्छापूर्वक या काम की तीव्र लालसापूर्वक दैहिक चेष्टाएं करना। चरित्रहीन स्त्री-पुरुषों की संगति करना, उनसे यौन सम्बन्ध स्थापित करना आदि, इसलिए कहा गया है कि इन्द्रियों के दास असंवृत मनुष्य हिताहितनिर्णय के क्षणों में मोहमुग्ध हो जाते हैं। काम की उपर्युक्त सीमाओं को देखते हुए मनुष्य को सही निर्णय लेना आवश्यक है। वस्तुतः, इन्द्रियों के भोग-विषय अपने आप में न अच्छे हैं, न बुरे हैं, किन्तु इनके प्रति राग के कारण जो विकृतियां या विषमताएं आती हैं वे अप्रशस्त हैं। कामभोगों में यह लिप्तता ही काम को अनुचित बनाती है। अतः आवश्यकता इस बात की इतनी नहीं है कि काम से व्यक्ति पूर्णतः विरत हो जाए, या उसे निरस्त कर दे। जब तक व्यक्ति के पास शरीर है, ऐसा किया भी नहीं जा सकता, किन्तु आवश्यकता इस बात की है कि वह अपने काम का वृत्त कम करे। कामनाओं को असीमित न होने दे, बल्कि उनकी सीमा निर्धारित करता जाए और धीरे-धीरे इन सीमाओं को, अर्थात कामभोग के दायरे को संकुचित करता जाए और अन्त में उससे मुक्त हो जाए। काम के प्रति आसक्ति न रखकर एक निःसंग, निष्काम भाव विकसित करे, क्योंकि विषयभोगजन्य विकृति से इसी प्रकार बचा जा सकता है। सत्पुरुष इसीलिए काम आदि विषय-भोगों का सेवन अनुचित मानते हैं। उनका कथन है कि कमलिनी का पत्र स्वभाव से ही जल में लिप्त नहीं होता, वैसे ही सत्पुरुष सम्यक्त्व के प्रभाव से विकारों और विषयों में लिप्त नहीं होते। वे भले ही तिलक आदि लगाकर मुनि का वेश धारण कर लें, यदि काम के प्रति अपनी आसक्ति नहीं छोड़ पाते, तो वे मुक्त भी नहीं हो सकते हैं। कहा गया है कि कुछ लोग तो विषयों का सेवन करते हुए भी सेवन नहीं करते (अर्थात् विषयों में लिप्त नहीं होते) और कुछ सेवन न करते ॥ मोहं जंति नय असंवुडा। - सूत्रकृतांगसूत्र -1/2/1/20 2 श्रमणसूत्र - 227 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003971
Book TitleJain Darshan ki Sangna ki Avdharna ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPramuditashreeji
Publication Year2011
Total Pages609
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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