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अध्याय-4 मैथुन-संज्ञा
मैथुन-संज्ञा में दो शब्द हैं - मैथुन + संज्ञा। मैथुन शब्द 'मिथ्' धातु से बना है, जिसका अर्थ है – आपस में मिलना, जुड़ना आदि और संज्ञा शब्द का अर्थ है - अनुभूति, संवेदना, इच्छा, आकांक्षा, चाह, तृष्णा आसक्ति आदि। ___मोहनीय-कर्म के उदय से इच्छापूर्वक स्त्री-प्राप्ति और उसके भोग की अभिलाषारूप क्रिया होती है और स्त्रीवेद के उदय से पुरुष–प्राप्ति और उससे भोग की अभिलाषारुप क्रिया होती है तथा नपुंसकवेद के उदय से स्त्री और पुरुष-दोनों के भोग की अभिलाषारूप क्रिया होती है, जो मैथुन-संज्ञा कहलाती है।' तत्त्वार्थभाष्य में मैथुन शब्द की व्युत्पत्ति करते हुए कहा -"स्त्री-पुरुष का युगल मिथुन कहलाता है। मिथुन के भाव को मैथुन कहते हैं। उसी प्रकार स्त्री या पुरुष की कामेच्छा को मैथुन-संज्ञा कहते हैं और स्त्री-पुरुष के योग को मैथुन कहते हैं।"
आचार्य पूज्यपाद ने सर्वार्थसिद्धि में लिखा है – मोह का उदय होने पर राग-परिणाम से स्त्री-पुरुष में जो परस्पर संस्पर्श की इच्छा होती है, यह मिथुन है और उसका कार्य मैथुन है, अर्थात् दोनों के पारस्परिक-भाव और कर्म मैथुन नहीं, अपितु राग-परिणाम के निमित्त से होने वाली चेष्टा एवं क्रिया मैथुन है। योगशास्त्र में आचार्य हेमचन्द्रजी ने मैथुन को एक रमणीय सुखद प्रतीत होने वाला परिणाम
'प्रज्ञापनासूत्र - 8/725
तत्त्वार्थभाष्य -9/6 3 मिथुनस्य स्त्रीपुंसलक्षणस्य भावः कर्म वा मैथुनम् – अभिधानराजेन्द्रकोष - 5/425 'स्त्रीपुंसयोश्चारित्रमोहोदये सति रागपरिणामाविष्टयोः परस्परस्पर्शनं प्रति इच्छा मिथुनम् । मिथुनस्य कर्म मैथुनमित्युच्यते। - सर्वार्थसिद्धि - 7/16 योगशास्त्र - 2/77
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