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________________ कहा है, पर यह परिणाम अत्यन्त घातक है, क्योंकि उससे अत्यधिक सूक्ष्म जीवों की हिंसा होती है। आचार्य वात्स्यायन' भी इस सत्य तथ्य को स्वीकार करते हैं । जैनागमों में इसके चार कारण बताए हैं शरीर में अधिक मांस, रक्त, वीर्य का संचय होने से, मोहनीय कर्म के उदय से, मैथुन की बात सुनने से तथा मैथुन में चित्त लगाने से मैथुन - संज्ञा होती है ।' आचारांगनिर्युक्ति की टीका में चारित्रमोहनीय कर्म के उदय के कारण कामवासनाजन्य आवेग को मैथुन - संज्ञा कहा गया है । तत्त्वार्थसार में अन्तरंग में वेद - नोकषाय की उदीरणा होने से तथा बहिरंग में कामोत्तेजक गरिष्ठ रसयुक्त भोजन करने से, मैथुन - सम्बन्धी क्रियाओं में उपयोग (चित्तवृत्ति) जाने तथा कामुक मनुष्यों की संगति करने से जो मैथुन की इच्छा होती है, उसे मैथुन - संज्ञा कहते हैं । यह संज्ञा नवम गुणस्थानक के पूर्वार्द्ध तक होती है । धवलाग्रंथ' में भी मैथुन - संज्ञा के संबंध में यही बात कही गई है। हम यह कह सकते हैं कि मैथुन -संज्ञा विभाव - दशा में रमण करने की वृत्ति है । यौन अंगों के घर्षण, युगलभाव या किसी अन्य का साथ चाहने और विपरीत लिंग से भोग करने की वृत्ति को मैथुन - संज्ञा कहते हैं । यह संज्ञा प्रत्येक संसारी जीव में पाई जाती है। यह संज्ञा जीव को अपनी प्रजाति की वृद्धि में सहयोग प्रदान करती है। यह बात ठीक है कि मैथुन - संज्ञा के बिना संसार चल नहीं सकता और इसीलिए इसे पूरी तरह से नकारा भी नहीं जा सकता, परन्तु इस सम्बन्ध में भी विवेक अति-3 - आवश्यक है। वस्तुतः, मैथुन - संज्ञा मनुष्य की जैव - वृत्ति या पाशविक प्रवृत्ति की परिचायक है, यदि कामवासनाओं पर विवेक की लगाम न लगाई जाए तो संपूर्ण समाज-व्यवस्था खतरे में पड़ सकती है । " कामशास्त्र " स्थानांगसूत्र 4/58 'आचारांगनिर्युक्ति टीका, गा. 39 - - आ. वात्स्यायन 146 Jain Education International ' तत्त्वार्थसार - 2 / 36, पृ. 46 " पणिदरसभोयणेण य, तस्सुवजोगे कुसीलसेवाए वेदस्सुदीरणा, मेहुणसण्णा हवदि एवं ।। - धवला 2, गा. 226 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003971
Book TitleJain Darshan ki Sangna ki Avdharna ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPramuditashreeji
Publication Year2011
Total Pages609
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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