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________________ 143 जैनदर्शन एवं भगवान् महावीर की यही शिक्षा है कि हम परस्पर अभय का विकास करें। सूत्रकृतांगसूत्र में स्पष्ट रूप से कहा गया है -दानों में यदि कोई श्रेष्ठ दान है, तो वह अभय प्रदान करना है। हम दूसरों को अभय प्रदान करें और स्वयं अभय को प्राप्त हों। इस प्रकार, विश्वशान्ति की स्थापना के लिए अभय और निःशस्त्रीकरण अतिआवश्यक है, और यही वर्तमान परिवेश में सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य होगा। अविश्वास शस्त्र-विस्तार को जन्म देता है, जबकि विश्वास अभय को जन्म देता है। अभय से निःशस्त्रीकरण संभव है और निःशस्त्रीकरण से ही विश्वशान्ति। इस प्रकार प्रस्तुत अध्याय में हमने भयसंज्ञा के स्वरूप एवं लक्षणों की चर्चा के । पश्चात् भयसंज्ञा के कारणों और दुष्परिणामों की चर्चा की। तदुपरान्त, भय के विभिन्न रूपों एवं प्रकारों की चर्चा करते हुए जैनदर्शन में सप्तविध भय की अवधारणा और उसका विश्लेषण प्रस्तुत किया। इस प्रकार भयसंज्ञा के विविध पक्षों के विवेचन के पश्चात् प्रस्तुत अध्याय में, आधुनिक मनोविज्ञान में भय की क्या अवधारणा है -इसकी चर्चा की और पाया कि आधुनिक मनोविज्ञान में भय को एक मूलप्रवृत्ति के रूप मे तथा संवेग के रूप में विवेचित किया गया है। तत्पश्चात्, आधुनिक मनोविज्ञान में भय की अवधारणा और उसकी जैनदर्शन से तुलना की गई है। इन सब चर्चाओं के पश्चात् हमने देखा कि प्रत्येक प्राणी में भयसंज्ञा पाई जाती है। फिर भी आध्यात्मिक-साधना और आध्यात्मिक विकास की दृष्टि से हमें भय से अभय की ओर ही बढ़ना होगा, क्योंकि आज विश्व में जो अस्त्र-शस्त्रों की दौड़ है, राष्ट्रों का पारस्परिक-अविश्वास या पारस्परिक-भय ही उसका मूल कारण है। यदि विश्व से हिंसा को समाप्त करना है और निःशस्त्रीकरण की दिशा में आगे बढ़ना है, तो हमें अभय का विकास करना होगा। पारस्परिक विश्वास और सहयोग की धारणा से ही अभय का विकास हो सकता है और उससे ही विश्व शान्ति की स्थापना हो सकती है। जो अभय होकर जीना जानता है, उसे कोई मार नहीं सकता। एकदा रवीन्द्रनाथ 60 दाणाण सेठें अभयप्पयाणं - सूत्रकृतांगसूत्र, 1/6/23 61 अभओ पत्थिवा। तुम अभयदाया भवाहि य। अणिच्चे जीवलोगम्मि किं हिसाए पसज्जसि - 18/11 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003971
Book TitleJain Darshan ki Sangna ki Avdharna ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPramuditashreeji
Publication Year2011
Total Pages609
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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