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________________ 101 Show आदि देखने पर भी व्यक्ति भययुक्त बन जाता है, उसकी चेतना में भय बैठ जाता है। 4. भय सम्बन्धी घटनाओं के चिन्तन से - भय संबंधी घटनाओं का चिन्तन करना भी भयोत्पत्ति का चौथा प्रमुख कारण है। प्राचीन समय की घटित घटनाओं का चिन्तन करने से, उन घटनाओं को कहने से, डरावने स्वप्न देखने या सुनने से उन्हें पुनः याद करने से, जहाँ भय की घटना घटित हो जाती है, पुनः उस स्थान पर जाने से, डरावने नॉवेल पढ़ने से, या ऐसे नाटक देखने से एवं उनके सम्बन्ध में चर्चा और चिन्तन करने से भय उत्पन्न होता जैन आगम-ग्रन्थ स्थानांगसूत्र में उपर्युक्त चार कारण भयसंज्ञा की उत्पत्ति के माने गए हैं। आधुनिक मनोविज्ञान में भी इनका समर्थन देखा जाता है। . साधारण भाषा में कहें तो 'भय आने वाले खतरे के प्रति एक भावनात्मक सोच है, यह 'चिन्ता' से कहीं-न-कहीं जुड़ा रहता है। भय की अधिकता या न्यूनता हमारे जीवन की कई घटनाओं को निर्धारित करती है। बहुत ज्यादा खतरा होगा, तो भय भी बहुत ज्यादा होगा, किन्तु कई बार खतरा कम भी हो, या वह वास्तविक भी न हो, तो भी भय हो सकता है, किन्तु जैनदर्शन कहता है कि मन में विश्वास या श्रद्धा का भाव हो, तो भय कम हो सकता है। ऐसे कार्य करने को प्राचीन समय में साहस कहा जाता था, जिसे आज की भाषा में 'रिस्क लेना' कहते हैं। भय से डरना नहीं चाहिए। भयभीत मनुष्य के पास भय शीघ्र आता है और स्वयं डरा हुआ व्यक्ति दूसरों को भी डरा देता है।21 दरअसल, भय की कम या अधिक मात्रा मनुष्य के व्यवहार (Behavior) को प्रभावित करती है। एक ओर बहुत ज्यादा भय खतरे को वास्तविक बना देता है तो दूसरी ओर, जरा-सा भय सकारात्मक होकर हमें सफलता दिला सकता है। ऐसी 20 ण भाइयव्वं, भीतं खु भया अइंति लहुयं । - प्रश्नव्याकरणसूत्र 2/2 । भीतो अन्नं पि हु भेसेज्जा - वही 2/2 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003971
Book TitleJain Darshan ki Sangna ki Avdharna ka Samikshatmak Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPramuditashreeji
PublisherPramuditashreeji
Publication Year2011
Total Pages609
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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