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पीछे दौड़ता है, वह उनके लिए अनेक प्रकार के दंभ रचता हुआ, अत्यधिक पापकर्म करता है और अंत में कपटवृत्ति अपना लेता है।"37 व्यक्ति के जीवन में कथनी और करनी में जितना दोहरापन आता है उतना ही व्यक्ति तनावग्रस्त बना रहता है, क्योंकि वह यह अपेक्षा रखता है कि कहीं भी उसका यह दोहरापन उजागर न हो। जैनदर्शन में "कहना कुछ और करना कुछ” –यही मृषावाद (असत्य भाषण) है।38 जब व्यक्ति असत्य कथन करता है तो उसे भय होता है कि सत्य सामने आया तो उसकी मान-प्रतिष्ठा पर घात पहुंचेगा। इस प्रकार सामाजिक जीवन में व्यक्ति की प्रतिष्ठा और सम्मान की भावना ही उसे तनावग्रस्त बनाती है। दूसरे प्रत्येक व्यक्ति मूलतः स्वहित की कामना का आकांक्षी होता है। जब कभी उसकी स्वहित की भावना को ठेस पहुंचती है तो भो वह तनावग्रस्त बन जाता है। जैसे अचानक आए हुए आर्थिक संकट या दिवालियापन आदि की स्थिति में व्यक्ति तनावग्रस्त बन जाता है। क्योंकि ऐसी स्थिति में उसे अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा के धूमिल होने का भय होता है। इसके अतिरिक्त समाज में व्याप्त वर्ग-संघर्ष एवं भेदभाव व्यक्ति को तनावग्रस्त बनाते हैं। जैनधर्म में धनी अथवा निर्धन का भेद, उच्च अथवा नीच का भेद, जाति एवं वर्ण का भेद मान्य नहीं है।
आंचारांगसूत्र में कहा गया है कि साधना-मार्ग (तनावमुक्ति का मार्ग) का उपदेश सभी के लिए समान है, जो उपदेश एक धनवान या उच्चकुल के व्यक्ति के लिए है, वही उपदेश गरीब या निम्नकुलोत्पन्न व्यक्ति के लिए भी है। 39 किन्तु फिर भी वर्तमान में मान-कषाय के कारण यह भेदभाव की भावना प्रत्येक व्यक्ति में तनाव उत्पन्न कर रही है। वर्णभेद, रंगभेद, ऊँच-नीच के भाव आदि भी व्यक्ति को तनावग्रस्त बनाते हैं। सभी मनुष्यों की एक ही जाति है। 40 जन्म के आधार
37 दशवैकालिकसूत्र - 5/2/37
नियुक्ति चूर्णि साहित्य की सूक्तियां, 3988 -सूक्ति त्रिवेणी, पृ 225 39 आचारांग – 1/2/6/102 40 अभिधान राजेन्द्र खण्ड-4, पृ 1441
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