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________________ पर जाति का निश्चय नहीं किया जा सकता। जाति, धर्म के नाम पर उच्च जाति के व्यक्ति निम्नकुलोत्पन्न व्यक्ति से द्वेष एवं घृणा की भावना रखते हैं। जहां एक ओर श्रेष्ठ वर्ग अपने अहंकार के कारण और अहंकार के पोषण के लिए दोहरा जीवन जीते हैं, वहीं दूसरी ओर निम्न वर्ग वाले ईर्ष्या व अभावग्रस्त जीवन जीते हैं। इस तरह दोनों प्रकार के व्यक्तियों में तनाव उत्पन्न होते हैं । जब समाज के सदस्यों में पारस्परिक सौहार्द और सद्भाव समाप्त हो जाता है तो उसके कारण भी व्यक्ति तनावग्रस्त होता है। जैनधर्म में एक स्वस्थ समाज व व्यक्ति के निर्माण के लिए निम्न सूत्र दिए गए हैं. -- सूत्रकृतांग में कहा गया है कि - व्यक्ति को किसी के भी साथ वैर-विरोध नहीं करना चाहिए | 11 अभिमान करना अज्ञानी का लक्षण है । 12 व्यक्ति को अपने अहं का पोषण नहीं करना चाहिए, जो अनाश्रित एवं असहाय हैं, उनको सहयोग तथा आश्रय देने हेतु सदा तत्पर रहना चाहिए। 43 संघ (समाज) व्यवस्था में सद्व्यवहार बड़ी चीज है। 14 जिस संघ (समाज) में सहयोग न हो, गलत प्रवृत्ति का निषेध न हो और सत्कार्य के लिए प्रेरणा न दी जाए वह संघ संघ नहीं है 145 समाज में धनी - गरीब, ऊँच-नीच, ज्ञानी और मूर्ख के जो वर्गभेद बनते हैं, वे व्यक्तियों के मन में हीनता एवं श्रेष्ठता के भाव उत्पन्न करते हैं और इन्हीं हीनता या श्रेष्ठता के भावों के कारण समाज में तनाव उत्पन्न हो जाते हैं। इस प्रकार हम देखते हैं कि सामाजिक विषमता व्यक्ति के जीवन में तनावों को उत्पन्न करती है। 41 न विरुज्झेज्ज केण वि । — • सूत्रकृतांग - 1/11/12 - 42 बालजणो पगभई । सूत्रकृतांग 1/11/12 43 असंगिहीयपरिजणस्स संगिण्हणयाए अब्भुट्ठेयत्वं भवति । - 123 'आवश्यक निर्युक्ति भाष्य 45 बृह. भा. 44 Jain Education International - - 4464 (सु. त्रि.) - 63 स्थानांग For Personal & Private Use Only - 8 www.jainelibrary.org
SR No.003970
Book TitleJain Dharm Darshan me Tanav Prabandhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrupti Jain
PublisherTrupti Jain
Publication Year2012
Total Pages387
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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