________________
समाज कल्पना है -"समाज कल्पना--प्रसूत सत्य है, वास्तविक सत्य है व्यक्ति । 35 जैनदर्शन की अनेकांत दृष्टि यह मान कर चलती है कि समाज एक सामान्य व अमूर्त तत्त्व है। समाज व्यक्ति सापेक्ष है, क्योंकि वह व्यक्तियों से ही बनता है, किन्तु जैनदर्शन यह भी मानकर चलता है कि व्यक्ति और समाज दोनों एक-दूसरे में अन्तर्निहित हैं। जैनदर्शन तत्त्वमीमांसा के अनुसार प्रत्येक वस्तु अपने आप में सामान्य और विशेष दोनों ही होती है। व्यक्ति सामाजिक होने पर भी व्यक्ति तो रहता ही है। समाज व्यक्ति निरपेक्ष नहीं होता और व्यक्ति समाज निरपेक्ष नहीं होता। यही कारण है कि सामाजिक परिस्थितियां एवं सामाजिक विषमताएं व्यक्ति के व्यक्तित्व को प्रभावित करती हैं। प्रत्येक व्यक्ति का अपना एक अलग व्यक्तित्व होता है। साथ ही प्रत्येक व्यक्ति समाज में अपने अहं की संतुष्टि चाहता है। वह परिवार और समाज में रहता है, अतः परिवार एवं समाज के दूसरे सदस्यों से उसकी कुछ अपेक्षाएं होती हैं। आचार्य महाप्रज्ञजी लिखते हैं कि -"समाज का आधार है, परस्परावलम्बन और परस्पर-सहयोग।"36 व्यक्ति सामान्यतः एक प्रतिष्ठापूर्ण जीवन जीने का आकांक्षी होता है। यदि समाज में उसकी आकांक्षाएं और अपेक्षाएं पूरी नहीं होती है ओर उसके अहं और प्रतिष्ठा को कोई चोट पहुंचती है तो वह तनावग्रस्त हो जाता है। समाज में उत्पन्न विषमताएं, वर्ग असंतुलन व्यक्ति के व्यक्तित्व को प्रभावित करते हैं और उसे तनावग्रस्त बनाते हैं। जब व्यक्ति की सामाजिक प्रतिष्ठा पर चोट पहुंचती है तो वह कभी-कभी आत्महत्या तक का निर्णय ले लेता है। प्रत्येक व्यक्ति समाज में सम्मान के साथ जीना चाहता है। जैनदर्शन यह मान करके चलता है कि प्रत्येक व्यक्ति में मान कषाय होती है और जब तक व्यक्ति में चेतन व अचेतन रूप से मान कषाय (Ego Problem) रही हुई है, तब तक वह तनावग्रस्त ही बना रहता है। दशवैकालिकसूत्र में कहा गया है कि जो व्यक्ति पूजा–प्रतिष्ठा की कामना में पड़ा है, यश का भूखा है, मान-सम्मान के
समस्या को देखना सीखें - आचार्य महाप्रज्ञ, पृ. 10 (आदर्श साहित्य संघ, चूरू) संस्करण-1999 36 समस्या को देखना सीखें - आचार्य महाप्रज्ञ, पृ. 11
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org