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________________ होती है, उसी प्रकार सांसारिक सुखभोग भी वास्तविक सुख नहीं है, वे भी अंत में दुःख प्रदाता ही बनते हैं।"49 - मेरे विचार से भौतिक सुखों की आकांक्षा सिर्फ अंत में ही दुःखी करती है, ऐसा भी नहीं है। जब सुख पाने की लालसा उत्पन्न होती है तभी से दुःख उत्पन्न हो जाता है जो अंत तक बना रहता है। जैसे कोई वस्तु प्रिय लगी तो उसे पाने में दुःख उठाना होता है, जब मिल गई तो वह नष्ट न हो उसका कभी वियोग न हो ऐसी चिंता होती हैं उसका वियोग या उसे नष्ट होने पर भी दुःख होता है। ये दुःख एवं चिंताएँ तनाव के ही रूप है। 'अध्यात्मसार' नामक ग्रन्थ में भी स्पष्टतया लिखा है कि जिस प्रकार कोई प्रेमी पहले प्रेमिका की प्राप्ति के लिए दुःखी होता है, उसके बाद उसका वियोग न हो इसकी चिंता में दुःखी होता है। आध्यात्मिकता से ही भौतिक दुःखों का अंत किया जा सकता है। जब व्यक्ति को आत्मतत्व का बोध होगा, उसमें आत्मिक गुणो का विकास होगा तभी व्यक्ति को सच्चे सुख एवं शांति की अनुभूति हो सकती है। आध्यात्मिक जीवन शैली ही व्यक्ति को अशांति, हिंसा, क्रूरता भ्रष्टाचार, चिंता आदि से बचा सकती है। आज विज्ञान के इस युग में भी जहाँ व्यक्ति को प्रत्येक सुख सुविधा मिल रही है, फिर भी व्यक्ति सुख की खोज कर रहा है। क्योंकि उसे सच्चा सुख मिल नहीं पाया है। वर्तमान विश्व तनावग्रस्त है। इस युग में अध्यात्म की अत्यंत आवश्यकता है। साध्वी प्रीतिदर्शनाजी अपने शोध ग्रन्थ में लिखती है कि -हमें विज्ञान का विरोध नहीं है, पर भौतिक जीवनदृष्टि के स्थान पर आध्यात्मिक जीवन दृष्टि तो रखनी ही होगी।" "अपूर्णा विधेव प्रकटखलमैत्रीव कुनय, प्रणालीपास्थाने विधववनितायौवनभिव - अध्यात्मसार - अध्यात्म महात्म्य अधिकार 5° आध्यात्मसार -अध्यात्मोपनिषद् एवं ज्ञानसार के संदर्भ में (शोध) -सा. प्रीतिदर्शनाश्री, पृ.45 51 अध्यात्मसार, अध्यात्मोपनिषद एवं ज्ञानसार के संदर्भ में (शोध), सा. प्रीतिदर्शनाश्री, पृ. 45 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003970
Book TitleJain Dharm Darshan me Tanav Prabandhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrupti Jain
PublisherTrupti Jain
Publication Year2012
Total Pages387
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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