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________________ __ 24 यह मन लालची है, कितना भी मिले उसे वह कम ही लगता है तृप्ति नहीं होती । है। यह मन एक ऐसा गहन गड्दा है जिसे कितना ही सुख दो संतुष्ट नहीं होता, कभी तृप्त होता ही नहीं है। उ. यशोविजयजी ने ज्ञानसार में कहा है कि - 'सरित्सहस्त्र दुष्पूरसमुद्रोदरसोदरः तृप्तिमानेद्रिग्रामो भव तृप्तोऽन्तरात्मना 6 हजारों नदियां सागर के उदर में नियमित रूप से गिरती है फिर भी क्या . सागर को तृप्ति हुई ? सागर की तरह पाँच इन्द्रियों एवं मन का स्वभाव भी है अतृप्त रहना। स्थानांगसूत्र में भी कहा गया है चार स्थान सदैव अपूर्ण ही रहते 1) सागर 2) श्मसान 3) पेट और 4) तृष्णा (मन) भौतिक सुख प्राप्त करने की लालसा व्यक्ति को तनावग्रस्त कर देती है और भौतिक सुखों को ही सच्चा सुख मानने वाले जीव सदैव दुःख का अनुभव करते है। भौतिकसुख प्राप्त करने की इच्छा को, तनाव को या दुःख को समाप्त करने के लिए आध्यात्मिक आनन्द की ओर अग्रसर होना होगा। जब तक सम्यक् आत्मबोध नहीं होता है, तभी तक सांसारिक विषय-वासनाओं में मनुष्य की रूचि बनी रहती है। 48 सच्चा सुख या आनन्द तो वह होता है, जो एक बार प्राप्त होने पर कभी नहीं जाता है। वह सदैव शांति देता है और वही सुख आत्मिक सुख या आनन्द है। आत्मिक आनन्द तनाव का अंत है। तनावों को उत्पन्न करने वाले इन्द्रिय, मन आदि के विषयों की आकांक्षा या इच्छा से रहित आत्मिक सुख ही वास्तविक सुख है। “अपूर्ण विद्या, धूर्त मनुष्य की मैत्री तथा अन्याययुक्त राज्य प्रणालिका, जिस प्रकार अंत में दुःख प्रदाता 4. ज्ञानसार, इन्द्रियजयाष्टक, 7/3, यशोविजयजी 47 स्थानांगसूत्र, चतुर्थ स्थानक 48 अध्यात्मसार -अध्यात्म महात्म्य अधिकार, उपा. यशोविजयजी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003970
Book TitleJain Dharm Darshan me Tanav Prabandhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrupti Jain
PublisherTrupti Jain
Publication Year2012
Total Pages387
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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