SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 298
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 279 आवश्यक है, इसके अभाव में तनावों से मुक्त होना सम्भव नहीं होता है। हम जानते हैं कि तनावमुक्ति का मार्ग ही साधना का मार्ग है। जो बाधाएँ साधना मार्ग में आती हैं, वे ही तनावमुक्ति के मार्ग में भी हैं। जब संसार के प्रति रूचि होगी, तो उसमें आसक्ति भी होगी। आसक्ति राग का ही रूप है और राग तनावों को उत्पन्न करने का मूल कारण है। सांसारिक प्रवृत्तियों के प्रति उदासीन का भाव रखना, तनावमुक्ति का मार्ग है। वैराग्य एवं उदासीनता के इस भाव को हम निम्न उदाहरण से समझ सकते हैं - मान लीजिए कि आपको किसी ने गाली दी या अपशब्द कहें, तो उन शब्दों का आपके मन पर असर होना स्वाभाविक है, परन्तु बाहर कोई अभिव्यक्ति नहीं करना, यह तो संवेग है, जबकि अपशब्द का आपके चित्त पर कोई प्रभाव नहीं पड़ना 'निर्वेद' है। जब किसी भी बात का चित्त पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा तो चाहे वह घटना सुख देने वाली हो या दुःख, तो चित्त में विचलन नहीं होगा। चित्त का विचलित या क्षुभित न होना ही तनावमुक्त होना है। ___ अनुकम्पा - इस शब्द का शाब्दिक अर्थ इस प्रकार है – अनु +कम्प, अनु का अर्थ है -तदनुसार, कम्प का अर्थ है -कम्पित होना, अर्थात् किसी के अनुसार कम्पित होना। दूसरे शब्दों में, दूसरे व्यक्ति के दुःख से पीड़ित होने पर उसी के अनुसार अनुभूति होना। यहाँ इसका अर्थ समझना आवश्यक है। इसका अर्थ है दूसरे व्यक्ति के दुःख को, अपना दुःख समझना। दूसरे के सुख-दुःख को अपना सुख-दुःख समझना ही अनुकम्पा है। जिस व्यक्ति ने 'सम' की साधना कर ली है या निर्वेद भाव जिसके चित्त में हो वह व्यक्ति तनावमुक्त होता है, उसे हम ज्ञानी कह सकते हैं और ज्ञानी दूसरों के दुःख को अपना दुःख समझकर भी तनावमुक्त रह सकता है। दुःख ही तनाव का कारण है और अज्ञानता से दुःख प्राप्त होता है। साथ ही अज्ञानतावश ही व्यक्ति 'पर' पर 'स्व' को आरोपण कर जीवन जीता है। जो व्यक्ति ज्ञानी होता है, वह दूसरे को 10 जैन.बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों को तुलनात्मक अध्ययन - पृ. 57 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003970
Book TitleJain Dharm Darshan me Tanav Prabandhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrupti Jain
PublisherTrupti Jain
Publication Year2012
Total Pages387
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy