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________________ 262 3. स्तेयानुबन्धी – निरन्तर चोरी करने-कराने की प्रवृत्ति सम्बन्धी चित्त की एकाग्रता। 4. संरक्षणानुबन्धी - परिग्रह के अर्जन और संरक्षण सम्बन्धी तन्मयता। उपर्युक्त चारों रौद्रध्यान के उपप्रकार व्यक्ति की तनावग्रस्त अवस्था का ही संकेत करते हैं और ये आर्त्तध्यान की अपेक्षा भी अधिक तनावग्रस्त बना देते हैं। आर्तध्यान में तो सिर्फ चिन्तन होता है, किन्तु उस चिन्तन से मुक्त होने के लिए व्यक्ति जिन दुष्प्रवृत्तियों को अपनाता है, उसे रौद्रध्यान कहते हैं। अनिष्ट वस्तु को दूर करने व इष्ट वस्तु को प्राप्त करने में चिन्तित तनावग्रस्त व्यक्ति अपनी चिन्ता को दूर करने या तनावमुक्त होने के लिए जब हिंसक प्रवृत्ति करता है, चोरी करता है, झूठ बोलता है और यही हिंसकादि प्रवृत्तियाँ उसे तनाव के उस उच्चस्तर पर ले जाती है, जहाँ व्यक्ति का विवेक ही नष्ट हो जाता है और विवेक के नष्ट हो जाने पर तनावमुक्ति भी अशक्य हो जाती है। रौद्रध्यान के लक्षण बताते हुए स्थानांगसूत्र में कहा गया है'55 - रौद्रध्यान के चार लक्षण हैं - 1. उत्सनदोष – हिंसादि किसी एक पाप में निरन्तर प्रवृत्ति करना। 2. बहुदोष – हिंसादि विविध पापों के करने में संलग्न रहना। 3. अज्ञानदोष – कुसंस्कारों से हिंसादि आदि अधार्मिक कृत्यों जैसे बलि आदि को ही धर्म मानना। 4. आमरणान्तदोष – भरणकाल तक भी हिंसादि करने का अनुताप न . होना, अर्थात् मृत्यु को समीप देखकर भी हिंसादि पाप प्रवृत्तियों का पश्चाताप नहीं होना। यह स्पष्ट है कि ये सभी लक्षण भी व्यक्ति की तनावग्रस्तता के सूचक हैं। जैन शास्त्रों में आर्तध्यान और रौद्रध्यान को अशुभध्यान कहा गया है। ये दोनो 155 स्थानांगसूत्र - 4/1/64, मधुकर मुनि Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003970
Book TitleJain Dharm Darshan me Tanav Prabandhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrupti Jain
PublisherTrupti Jain
Publication Year2012
Total Pages387
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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