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________________ 250 है। कहा गया है कि -आतुरा परितावेंति अर्थात् जो स्वयं आतुर होता है, वह दूसरों को भी परिताप देता है।25 रौद्रध्यानी इतना क्रूर होता है कि क्रोध में अंधा हुआ मनुष्य पास में खड़ी माँ, बहिन और बच्चे को भी मारने लग जाता है।126 क्रोध से मनुष्य का हृदय रौद्र बन जाता है।17 2. मृषानुबन्धी रौद्रध्यान – इस दूसरे रौद्रध्यान का सम्बन्ध माया से है। दूसरों को ठगना, झूठ बोलना, लोभ वश झूठ बोलकर दूसरों के जीवन में अंधेरा कर देना अर्थात् उनके इच्छित विषयों को समाप्त कर देना मृषानुबन्धी रौद्रध्यान है। इस स्थिति में व्यक्ति का मन सदैव दूसरों को ठगने का ही विचार करता रहता है। माया रचता रहता है और एक माया हजारों सत्यों का नाश कर डालती है।128 3. स्तेयानुबन्धी रौद्रध्यान – इस ध्यान में व्यक्ति तीव्र क्रोध और लोभ से आकुल होकर प्राणियों का उपहनन, अनार्य आचरण और दूसरे की वस्तु का अपहरण करने का चिन्तन करता रहता है। 129 अपहरण करने से अपहरणकर्ता भी तनावयुक्त रहता है और जिसका सामान चोरी हुआ है, वह भी चिंतित व अशांत रहता है। 4. विषयसंरक्षणानुबन्धी – तीव्र क्रोध और लोभ से आक्रान्त व्यक्ति का चित्त रूचिकर विषयों की प्राप्ति के साधन रूप धन की रक्षा में संलग्न रहता है। अनिष्ट चिन्तन में रत रहना, सभी के प्रति शंकालु होना, दूसरों का घात करने के भावों से आक्रान्त रहना, विषयसंरक्षणानुबन्धी रौद्रध्यान 125 आचारांगसूत्र – 1/1/6 126 वसुनन्दि श्रावकाचार -66 127 भगवती आराधना – 1366 (रोसेण रूद्दहिदओ, णारगसीलो ण्रो होदि) 128 भगवती आराधना – 1384 (सच्चाण सहसाण वि, माया एक्कानि णासेदि।) 129 ध्यानशतक - 20 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003970
Book TitleJain Dharm Darshan me Tanav Prabandhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTrupti Jain
PublisherTrupti Jain
Publication Year2012
Total Pages387
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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