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बनाता है, साथ ही दूसरों के जीवन में भी अशांति फैलाता है। दूसरों के पास रही हुई वस्तु को या उनके सुखों को देखकर ईर्ष्या करता है। उसमें अप्राप्त वस्तु को प्राप्त करने की अत्यन्त तृष्णा रहती है, उसकी आकांक्षा अधिकाधिक बढ़ती जाती है और इसी में उसका जीवन पूरा हो जाता है, फिर भी उसकी तृष्णा समाप्त नहीं होती। वह दूसरों की वस्तु को प्राप्त करने के लिए शोक, विलाप, माया आदि करता है और दूसरों को भी हानि पहुँचाता है। इच्छाओं की पूर्ति को ही तनावमुक्ति की दवा समझता है। रौद्रध्यान के भेद, लक्षण व तनाव से उनका सम्बन्ध -
रौद्रध्यान के चार भेद कहे गए हैं122 - 1. हिंसानुबन्धी रौद्रध्यान 2. मृषानुबन्धी रौद्रध्यान 3. स्तेयानुबन्धी रौद्रध्यान
4. विषयसंरक्षणानुबन्धी रौद्रध्यान 1. हिंसानुबन्धी. रौद्रध्यान - निरन्तर हिंसक प्रवृत्ति में तन्मयता कराने वाली चित्त की एकाग्रता। 123 हिंसानुबन्धी रौद्रध्यान में चित्त दूसरों को पीड़ित करने का, दुःख देने का, उनके ताड़न या मारने का ही चिंतन करता रहता है। जिस प्रकार अग्नि जलाती है, उसी प्रकार रौद्रध्यानी क्रोध रूपी अग्नि में जलता रहता है। उत्तराध्ययनसूत्र में क्रोधादि कषाय को अग्नि की उपमा दी है।124 उसके मन में शांति नहीं रहती। अशांत व्यक्ति स्वयं भी अशांत रहता है, अर्थात् तनावयुक्त रहता है और दूसरों को भी तनावग्रस्त कर देता है। आचारांगसूत्र से इस बात की पुष्टि होती
122 (अ) रौद्दे झाणे चउव्विहे पण्णत्ते, तं जहा –हिंसाणुबन्धि, मोसाणुबन्धि, तेणाणुबन्धि,
सारक्खणाणुबन्धि। - स्थानांगसूत्र -4/1/63, पृ. 223 (ब) ध्यानशतक - श्लोक 19-22 (स) ज्ञानार्णव – 24/3 (द) हिंसाऽनृतस्तेयविषय संरक्षणेभ्यो रौद्रमविरतदेशविरतयोः -
तत्त्वार्थसूत्र 9/36 12 जैन साधना पद्धति में ध्यान, -डॉ. सागरमल जैन, पृ. 28 124 कसाया अग्गिणो वुत्ता - उत्तराध्ययनसूत्र-23/53
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