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तथ्यों की अपेक्षा आत्मा को महत्व देने वाली जीवनदृष्टि। दूसरे शब्दों में इसका अर्थ यह हुआ कि आध्यत्मिक जीवन दृष्टि भौतिक जीवन दृष्टि से भिन्न हो कर आध्यात्मिक मूल्यों या आत्म तत्त्व को प्रधानता देती है।
उत्तराध्ययनसूत्र में जीवात्मा के दो भेद किए है-1. संसारी और 2. सिद्ध । यहाँ आत्मा की कर्मों से रहित विशुद्ध दशा को ही सिद्धावस्था या मुक्तावस्था कहा गया है। इसे स्वभावदशा भी कहा जा सकता है क्योंकि इसमें आत्मा अपने निज शुद्ध स्वरूप में स्थित रहती है। इसके विपरीत संसारी आत्मा को कर्मों से युक्त होने के कारण विभाव-दशा में माना गया है। यद्यपि संसारस्थ जीवन्मुक्त या क्षीण कषाय सयोगी केवली एवं अयोगी केवली भी विभाव मुक्त माने जाते है। आत्मा का कर्मों के उदय से प्रभावित होकर मोह दशा में रहना ही विभाव दशा है। साधना के सारे प्रयत्न विभावदशा से स्वभावदशा में आने के लिए होते है। विभाव विकृत्ति है और स्वभाव प्रकृति है। विकृत्ति को समाप्त करके ही स्वभाव में आया जा सकता है। जैनदर्शन यह मानता है कि जब तक आत्मा विभाव दशा में है अर्थात् दसवें गुणस्थान में भी सूक्ष्म लोभ से ग्रसित है वह तनावयुक्त है। अतः जैन दर्शन में तनावों से मुक्त होने की प्रक्रिया को ही मुक्ति का साधन कहा गया है। आत्मा जब तक कर्म संस्कार जन्य विभाव दशा में है तब तक वह अशुद्ध है। वस्तुतः जैन साधना आत्मा के परिशोधन की ही एक प्रक्रिया है। संसार दशा में आत्मा कर्मों से युक्त होने के कारण अशुद्ध रूप में होती है। आत्मा के इस अशुद्ध रूप को दूर करना ही जैन अध्यात्म मार्ग का मुख्य लक्षण है। चेतना में कर्मों के संस्कारों की सत्ता न रहें, वह उनसे प्रभावित न हो, उसमें राग-द्वेष, मोह एवं कषाय रूपी तरंगे न उठे, चित्त में विकल्पता एवं तनाव न हो यही आत्म विशुद्धि की स्थिति है। स्वभाव एक ऐसा तत्व है, जो विभाव के हटते ही स्वतः प्रकट हो जाता है। जैसे आग का संयोग हटते ही पानी स्वतः शीतल होने लग जाता है। पानी का शीतल होना स्वभाविक है, किन्तु उसके गरम होने में आग का संयोग अपेक्षित होता है। अर्थात् वह 'पर' अर्थात अग्नि के संयोग से ही विभावदशा को प्राप्त करता है। इसको हम इस तरह भी कह सकते है कि
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