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बाह्य पदार्थों के संयोग से ही विभावदशा की प्राप्ति या स्वभाव से च्युत होने की स्थिति बनती है। चेतना की यह विभावदशा में अवस्थिति ही तनावयुक्त. दशा कही जाती है। डॉ. सागरमलजी लिखते हैं कि -"मानसिक-विक्षोभ या तनाव को. हमारा स्वभाव इसलिए नहीं माना जा सकता है, क्योंकि हम उसे मिटाना चाहते है, उसका निराकरण करना चाहते है और जिसे आप छोड़ना या मिटाना चाहते हैं, वह आपका स्वभाव नहीं हो सकता।" 96 राग-द्वेष, कषाय, अंहकार आदि तनाव उत्पन्न करते है। ये सभी 'पर' के निमित्त से होते हैं। इनका विषय 'पर' है और इसलिए ये तनावों का कारण है अर्थात् विभावदशा का कारण है और इस विभावदशा से स्वभावदशा में लोटना ही तनावमुक्ति की प्रक्रिया है। आत्मा स्वभावतः तो शुद्ध, बुद्ध और तनावमुक्त है किन्तु 'पर' के संयोग से वह अशुद्ध या तनावयुक्त अवस्था को प्राप्त हो जाती हैं। आत्मा के इस शुद्ध स्वभाव पर कर्मरूपी आवरण इतने घनिष्ठ होते है कि आत्मा का लक्ष्यशोधन करना और तनावमुक्त अवस्था में आना कठिन हो जाता है।
राग-द्वेष, कषाय और मोह रूपी कर्म संस्कारों के कारण जब कर्म वर्गणाओं के पुद्गल आत्मा से चिपकते हैं, तो आत्मा विभाव दशा को प्राप्त करती है। इस प्रकार विभावदशा का मूल कारण मन की चंचलता है। मन चंचल होता है किन्तु उसकी यह चंचलता सदैव बाह्य तत्वों के निमित्त से होती है। व्यक्ति बाह्य तत्वों का संयोग मिलने पर उनके प्रति राग-द्वेष करता है, जो चित्त में तनाव उत्पन्न करने का मुख्य कारण है। “गीता में कहा गया है” –“मन के द्वारा विषयों का संयोग होने पर इनका चिन्तन होता है और विषयों का चिंतन करने वाले उस पुरूष ही उन विषयों में आसक्ति हो जाती है और आसक्ति से उन विषयों को भोगने की कामना उत्पन्न होती है और कामना में विघ्न पड़ने से क्रोध उत्पन्न होता है। क्रोध से अविवेक अर्थात् मूढभाव उत्पन्न होता है और अविवेक से स्मरण शक्ति भ्रमित हो जाती है और स्मृति के भ्रमित हो जाने से
% धर्म का मर्म -पृ. 16 97 गीता - 2/62, 63
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