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जाते है। ठीक वैसे ही जैसे “जो योगी आत्मा का ध्यान करता है, अर्थात् ज्ञाता-दृष्टा बन जाता है, वह कर्मबन्ध को नष्ट कर देता है।
एकाग्रता के भी दो रूप होते हैं, एक वह जो तनावमुक्त करती है और दूसरी वह जो तनाव निर्मित करती है। जब व्यक्ति एक बिंदु पर एकाग्र हो जाता है, तब शेष संसार से संबंध तोड़ लेता है। उसे सिर्फ उस बिंदु पर एकाग्र होने का प्रयत्न करना होता है। यदि ये प्रयत्न इच्छा आकांक्षा या कामना से जुड़े होते हैं तो तनाव उत्पन्न करते है। किन्तु यदि ये ही प्रयत्न या पुरूषार्थ ज्ञाता दृष्टा भाव में रहने के होते हैं, तो वे तनाव मुक्त करते हैं। चित्त को एकाग्र करने का प्रयत्न जब तक सहज रूप में नहीं होता, तब तक भी तनाव निर्मित करता है और यह तनाव भी मानसिक व्यवस्था को अस्त-व्यस्त करता है। इसे जैनदर्शन में आर्तध्यान और रौद्रध्यान कहा है। सहज एकाग्रता के अभाव में व्यक्ति न तो मन की चंचलता को शांत कर पाता है और न ही तनावमुक्त हो पाता है क्योंकि उसके मन में सदैव कुछ न कुछ पाने की चाह उत्पन्न होती रहती है। मन की चंचलता को शांत करने के लिए निष्कामभाव से एवं साक्षीभाव से जीवन जीने का अभ्यास करना चाहिए। ध्यान और ध्यान की साधना सिद्ध करने के लिए मन की एकाग्रता का होना आवश्यक है। तनाव मुक्ति का भान भी स्थिर चित्त ही करा सकता है। "जैन साधना-पद्धति में ध्यान योग' 80 में लिखा है -रागद्वेषात्मक जीवों में अनुकूलता और प्रतिकूलताः का कारण परिस्थिति नहीं, अपितु मन है और रागद्वेषात्मक वृत्तियों के निरोध होते ही मन भी स्थिर हो जाता है। ऐसा स्थिर मन ही आत्मा के मोक्ष का कारण बन जाता है और अस्थिर मन आत्मभ्रान्ति उत्पन्न करता है। तनावमुक्त मन आत्मा का वास्तविक प्रतिनिधि है और तनावयुक्त मन रागादि परिणति का कारण है।
" समणसुत्तं - 494 ४० जैन साधना पद्धति में ध्यानयोग -डॉ. साध्वी प्रियदर्शना, पृ. 274
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